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________________ 78 1 [ जनविद्या-13 हरिवंशपुराण लोयाण दोहणालं. मिहलोकण्हकेसरसुसोहं । महपुरिस तिसदिलं, हरिवंससरोरुहं जयउ ॥ हरिपण्डुसुप्राणकहा, चउमुहवासेहि भासिया जह या । तह विरयमि लोयपिया, जेण ण गासेइ दंसरणं पउरं ॥2॥ विसमीसियं वरवीरं, जह सा चारित्तखंडिया पारी। डज्झउ दंसरण .महणं मिच्छत्तकरं वि यं कव्वं ॥3॥ जह गोत्तमेण भरिणयं, सेरिणयरायेण पुच्छियं जह या।। जह जिणसेरणेण कयं, तह विरयमि किपि उद्देसं ॥4॥ अप्पा किं भरणमि हरी, कप्पयरो सायरो व्व सुरसेलो । णं रणं प्रप्पपसंसा, परिरिंगदा गरहिया लोए ॥5॥ अप्पारणं जेरण थुवं, बुद्धिविहीरणेण गिदियं तेरण । । पुक्कारइ ण इव जरणो, पहायरोपायडो तह वि ॥6॥ जो जोडइ विणि पयासु, विसुद्धा जिणवरेहि जह भणिया ।। पाहं तेरणवि सरिसो, भवियायरण वछलो तह वि ॥7॥ सुव्वउ भवियाणंद, पिसुरणचउक्का प्रभव्वजरणसूलं । धण्णय धवलेण कयं, हरिवंस सुसोहणं कव्वं ॥8॥ प्रत्थसारउ दोसपरिमुक्कु, प्रायाणह णिप्पाइयउ धवलु कव्वु कुंडलु मणोहरु । इहु कसियउ सवियक्खरण हि करहु करण जरण गुरण महायर ॥9॥ जिरगणाहउ कुसुमंजलि देविणु णिभूसणा मुणिवर पणवेप्पिणु । पवर चरिय हरिवंसकवित्तो अप्पउ पयडिउ सूरह पुत्तो ॥100 जयउ भुवणि जिणसासणु। पावपणासणु चउगइगमणणिवारउ। तिहुवरणहियकारउ दोसणिवारउ भवियहमोक्खहं सारउ ॥11॥ एहु जिणवरवयणु सरसेहिं अवगाहिवि प्राणियउ प्रागमिल्लजल कि पिघवलेण। जगपियहु कण्णंजुलिहि पावडाहु णासइ प्रकालेण ॥ मात्रा-जोतियसें देवें वंदिउ भावें मुक्कउ दोस असेसे पावें । सो जिणु कलुसपावखयकारउ तुम्हहं दुरियइ हरइ भडारउ ॥12॥
SR No.524761
Book TitleJain Vidya 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1993
Total Pages102
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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