SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 74 ] | जैन विद्या-13 कहां तक गिनायें, हम बहुत से ऐसे कार्य जाने-अनजाने में कर देते हैं जिनसे हमारा स्वयं का लाभ नहीं के बराबर होता है किन्तु उससे देश, समाज, घर और व्यक्ति के चारों ओर एक ऐसे वातावरण का निर्माण हो जाता है जो विषमता और अशान्ति को जन्म देकर प्रापसी कलह और वैमनस्य को बढ़ाता है । 1 . इस प्रकार आज से हजारों वर्ष पूर्व हमारे प्राचार्यों द्वारा कही गयी बातें आज के परिप्रेक्ष्य में भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी कि वे उस समय थीं। 1. योऽनय पंचविषं परिहरति विवृत्शुद्धधर्ममतिः । सोऽनर्थदंडविरति गुणवतं नयति परिपूत्तिम् ॥800 पंचाना दुष्टाध्यानं पापोपदेशनाशक्तिः । हिंसोपकारि दानं प्रमादचरणं श्रुतिर्दष्टा ॥81।। मंडलविडालकुक्कुटमपूरशुकसारिकादयो जीवाः । । हितकाममा बाहाः सर्वे पापोपकारपराः ॥82।। लोहं लाक्षा नीली कुसुंभ मदनं विषं शरणः शस्त्रम् । संधानकं च पुष्पं सर्व करूणापरहेंयम् ॥83॥ नीली सूरसकंदो दिवसहितयोषिते च दधिमथिते । विद्धं पुष्पितमन्नं कालिंग द्रोणपुष्पिका त्याज्या ।।84।। . .
SR No.524761
Book TitleJain Vidya 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1993
Total Pages102
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy