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[ जनविद्या-13
ग्रन्थ कैसे बन सकता था ? चौहार (7.63), संकरार मठ (8.10) जैसे शब्द किसी प्राकृत ग्रन्थ से ही गृहीत हो सकते हैं । इसी तरह योषा की व्युत्पत्ति जष-जोष से खोजने की भी क्या अावश्यकता थी
यतो जोषयति क्षिप्र विश्वं योषा ततो मता। विदधाति यतः क्रोधं भामिनी भव्यते ततः ॥ चतश्छादयते दोषस्ततः स्त्री कम्यते बुधैः । विलीयते यतश्चितमेतस्यां विलयाततः ॥
अमितगति की धर्मपरीक्षा जिस प्रकार दो माह में तैयार हो गई थी उसी प्रकार उनके संस्कृत 'आराधना' और संस्कृत 'पंचसंग्रह' ग्रन्थ भी लगभग चार-चार माह में ही रच लिये गये थे जो क्रमशः शिवार्य की प्राकृत 'भगवती आराधना' और प्राकृत 'पंचसंग्रह' के संस्कृत संक्षिप्त अनुवादमात्र हैं। यह उनके संस्कृत भाषा पर असाधारण अधिकार का फल था और आशुकवि होने का प्रमाण भी। हरिषेण ने 'धम्मपरिक्खा' के प्रारम्भ में जयराम की प्राकृत 'धम्मपरिक्ख' का स्मरण किया है। अभी तक यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हो सका। फिर भी यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अमितगति ने शायद इस ग्रन्थ को भी आधार बनाया हो। इसके समर्थन में यह कहा जा सकता है कि अमितगति ने धर्मपरीक्षा में हट्ट (3 6), जेमति (5.39), ग्रहिल (13.23), कत्रार (15.23), जैसे प्राकृत शब्दों को समाहित किया है जबकि हरिषेण ने ऐसे स्थलों में क्रमशः 1.17, 2.24 (गइ मुंजइ), 2.18, 514, 8.1 कडवकों में इन शब्दों का उपयोग नहीं किया है ।
इससे यह लगता है कि अमितगति के समय जयराम की 'धम्मपरिक्खा' और कदाचित् हरिषेण की भी 'धम्मपरिक्खा' रही होनी चाहिए। अमितगति ने जिस नगरी को प्रियापुरी (1.48) और संगालो कहा है, हरिषेण ने उन्हें क्रमश: विजयापुरी (1.8) तथा मंगालों (2.7) शब्द दिये हैं । हरिषेण ने जयराम का उल्लेख बहुत स्पष्ट शब्दों में कर दिया है जबकि अमितगति ने ऐसा कोई उल्लेख नहीं किया। अतः जब तक जयराम की प्राकृत 'धम्मपरिक्खा' उपलब्ध नहीं होती तब तक यह अनुमान मात्र माना जा सकता है कि अमितगति और हरिषेण दोनों ने उसे अपना आधार बनाया है। पर चूंकि हरिषेण की अपभ्रंश 'धम्मपरिक्खा' उपलब्ध है अतः यह अनुमान लगाना अनुचित नहीं होगा कि अमितगति के समक्ष यह ग्रन्थ भी रहा होगा। पूर्वोक्त परिच्छेदगत विभाजित विषय-सामग्री की तुलना से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि अमितगति ने हरिषेण के विषय को विस्तार-मात्र दिया है।