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जैनविद्या-13 ]
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है। कृति में रसभाव-भरित शब्दयोजना काव्य के 'सद्यः पर निवृत्तये' प्रयोजन को सिद्ध करती है । प्रस्तुत कृति शान्तरस के पिपासुत्रों के लिए 'सुधा-संजीवनी' के समान ग्राह्य है।
सारांश रूप में कहा जा सकता है कि 'भावना-द्वात्रिंशतिका' शान्तरस का शीतल जल से परिपूर्ण एक ऐसा निर्भर है जिसमें अवगाहन करने पर सहृदय की चंचल चित्तवृत्तियां शान्त हो जाती हैं । परिणामस्वरूप एक अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव करते हैं । जिस मानन्द का अनुभव योगीगण ध्यान और योग के माध्यम से करते हैं उस प्रकार का अनुभव सहृदय पाठक शान्तरस से अनुप्राणित इस काव्य से सहज ही प्राप्त कर सकते हैं ।