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________________ 381 । जनविद्या-13 भिन्न-भिन्न पात्रों के अनुसार भिन्न नाम हो जाते हैं. यथा - मैत्री, प्रमोद, कारुण्य का माध्यस्थ । सत्त्वेषु मैत्री गुरिणषु प्रमोद, क्लिष्टषु जीवेषु कृपापरत्वम् ।। माध्यस्थभाव विसरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देवः ।। जागरूकता एवं प्रात्मालोचन-सामायिक का दूसरा सूत्र है - जागरूकता,. अपने भावों व मन-वचन-काय की क्रियाओं के प्रति पूर्ण जागरूकता होना । जीव मरे या जीये इससे पापबंध नहीं होता, किन्तु जो व्यक्ति प्रमादी या प्रयत्नाचारी है उसकी प्रवृत्ति से जीव ना मरने पर भी कर्मबन्ध होता है । कर्मबन्ध का कारण जीव-हिंसा नहीं, अयत्नाचार . या प्रमाद है । इसलिए, प्रमाद व मूछी का परित्याग हो तदुपरान्त आत्मनिरीक्षण से चित्त के प्रत्येक कोने में छुपे विकारी तत्वों को पहिचानें और गुरु के समक्ष विवेचन करें। रोम को छुपाने व दबाने से स्वास्थ्य प्राप्त नहीं होता। भीतर के विजातीय तत्वों को विवेक व जागरूकता से निकाल फेंकें जिससे आत्मा का कायाकल्प हो । दोष होना मानवीय दुर्बलता है, किन्तु उसको छिपाना अपराध हैं। दोष के प्रति ग्लानि का भाव' दोष-शुद्धि का सशक्त उपाय है । दोष करके भी दोष के प्रति ग्लानि का अहसास न होना बड़ा अपराध है. जिसको प्राचार्य जी ने अत्यन्त मार्मिक परिभाषा में गूंथा है-- क्षति मनः शुद्धि विधेरतिक्रमं व्यतिक्रम शीलव्रते-विलंघनम् । प्रभोऽतिचारं विषयेषु वर्तनं, वदन्त्यनाचारमिहातिसक्तताम् । संयम-व्रत आदि के प्रति मन की शुद्धि न रहना वह अतिक्रम है । व्रत की सुरक्षा के लिए ग्रहण किये उपनियमों में शिथिलता होना व्यतिक्रम है । विषयों में प्रवृत्त होना अतीचार है । किन्तु विषय-निवृत्ति के प्रति आकांक्षा न रहना, अथवा व्रत के प्रति बहुमान का अभाव हीना अनाचार है । तात्पर्य-व्रत टूट जामे के पश्चात् भी जब तक व्रत में स्थित होने की भावना व प्रयास है, तब तक वह वृत्ति प्रतीचार कहलाती है अनाचार नहीं। क्योंकि उसमें सुधार की सम्भावना है, पूर्ण जागरूकता है। यद्यपि पूर्व संस्कारवश स्खलित हो जाता है तो भी उस संस्कार की गुलामी छोड़ने की आकांक्षा है। यह आकांक्षा भावात्मक चारित्र है जो उसे विषय-निवृत्ति के लिए शक्ति प्रदान करती है । गिरकर उठने की कामना रखनेवाला अवश्य ही उठ जाता है । जब संयम में उपस्थापन की भावना जन्म लेती है तब वह अनाचार कहा जाता है । इस नियम के अनुसार बड़े से बड़ा दोष भी अतीचार हो सकता है तथा छोटे से छोटा दोष भी अनाचार की कोटि में आ जाता है। उत्तरदायी कौन ?-आदमी की सामान्य मामसिक प्रवृत्ति है कि वह कषाय-दुःखबम्धनादि का कारण दूसरों को ठहराकर स्वयं को दोषमुक्त अथवा स्वच्छ सिद्ध करता है ।
SR No.524761
Book TitleJain Vidya 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1993
Total Pages102
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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