SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनविद्या-13 ] अप्रेल-1993 [ 37 समभावप्रतिक्रियारहित जीवन -अ.कु. कौशल जी __ जो प्रतिक्रिया-रहित जीवन जीता है वही स्वाधीन है, स्वतन्त्र है । वही जीवन्मुक्त या वीतरागी कहलाता है । प्रतिक्रिया-विहीन अवस्था का नाम ही सामायिक, समभाव चारित्र वा धर्म है अथवा मोह और क्षोभ से रहित प्रात्म-परिणाम का नाम समभाव, चारित्र वा धर्म है। किन्तु जिन जीवों को तनिक से बहिरंग वा अन्तरंग निमित्त आते ही अनुराग-द्वेषराग रूप प्रतिक्रिया होती है, वे सुख-दुःख, क्षोभ-भयमय परतन्त्र जीवन व्यतीत करते हैं । जीवन में प्राकृतिक-मानवीय-तियंच व देवकृत अथवा कर्मोदय-जनित निमित्त पाते ही रहते हैं, इनमें प्रतिक्रिया-रहित स्वाधीन जीवन जीना ही सामायिक-साधना का उद्देश्य है । उस समभाव में जीव किसी भी अवस्था में, किसी भी क्षेत्र में स्थित हो सकता है। क्योंकि यह प्रात्मा का निजी व स्वाभावाविक परिणाम है। स्वभाव स्व-प्राश्रित होता है और विभाष पर-प्राश्रित । जितने भी वभाविक भाव हैं वे सब निमित्ताश्रित हैं। उन निमित्त व परावलम्बन से उपयोग को हटाते ही स्वभाव उदय हो जाता है। ऐसे उस समभाव को जागृत करने के लिए प्राचार्य अमितगति जी ने सामायिक पाठ में चार प्रमुख बातें कही हैं मैत्रीभाव - प्रथम अवस्था में साधक द्वेषभाव का त्याग करें। कलुष परिणाम भावों का विष है जिसमें तनाव है, विकर्षण है । तनिक से भी कलुष परिणाम से सामायिक में प्रवेश असम्भव है। वह भाव संसार व मुक्ति दोनों मार्ग का बाधकतत्त्व है। द्वेष भाव को जीतने के लिए गुणग्राही दृष्टि होनी अपेक्षित है जिससे प्रेम का उदय होगा। इसी प्रेम के
SR No.524761
Book TitleJain Vidya 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1993
Total Pages102
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy