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________________ 12 ] [ जैनविद्या- 13 ज्ञानं सदर्चनीयम् 1 चौरादिदयावतनूजभूपरहार्य मच्यं सकलेऽपि लोके धनं परेषां नयनैरदृश्यं ज्ञानं नरा धन्यतमा वहन्ति ॥ 1861. विनश्वरं पापसमृद्धिदक्षं विपाकदुःखं बुधनिन्दनीयम् । तदन्यथाभूतगुणेन तुल्यं ज्ञानेन राज्यं न कदाचिदस्ति ।।187 ॥ पूज्यं स्वदेशे भवतीह राज्यं ज्ञानं त्रिलोकेऽपि सदर्चनीयम् । ज्ञानं विवेकाय मदाय राज्यं ततो न ते तुल्यगुणे भवेताम् ||188 ।। - सुभाषितरत्न संदोह -धन को तो चोर चुरा सकता है, पुत्रादि बांट सकते हैं, राजा हर सकते हैं, पड़ोसी देखकर डाह करते हैं किन्तु ज्ञानरूपी धन ही ऐसा धन है जिसे न कोई चुरा सकता है, न बाँट सकता है, न हर सकता है। जिनके पास यह ज्ञानरूपी धन है, वे ही धन्य हैं । 186 । - राज्य भी ज्ञान की समानता नहीं कर सकता क्योंकि राज्य विनश्वर है, एक दिन श्रवश्य नष्ट हो जाता है किन्तु ज्ञान अविनाशी है। राज्य पाप को बढ़ानेवाला है किन्तु ज्ञान से पाप का नाश होता है। राज्य का फल अन्त में दुःख ही है किन्तु ज्ञान का फल मोक्ष सुख है । पण्डितजन राज्य की निन्दा करते हैं किन्तु ज्ञान की प्रशंसा करते हैं । इस प्रकार राज्य ज्ञान की कभी भी बराबरी नहीं कर सकता । 187 । इस संसार में राज्य या राजा की पूजा केवल अपने राज्य में ही होती है और वह भी तभी तक जब तक राज्य रहता है किन्तु ज्ञान की पूजा तीन लोक में और सर्वदा होती है । ज्ञान हित-अहित हेय उपादेय आदि का बिबेक कराता है किन्तु है । 188 । राज्य मद पैदा करता - प्र. पं. बालचन्द्र सिद्धांतशास्त्री
SR No.524761
Book TitleJain Vidya 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1993
Total Pages102
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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