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________________ जनविद्या-13 ] [ १ 2. दूसरे परिच्छेद में कर्मों की प्रकृतियों का विस्तार से विवेचन किया गया है क्रोधो मानो जिनर्माया लोभः प्रत्येकमोरिताः । तत्रानंतानुबंध्यादि विकल्पेन चतुर्विधाः ॥ 3. तीसरे परिच्छेद में कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा आदि का विस्तार से विवेचन किया गया है परस्परं प्रदेशाच्या प्रवेशो जीवकर्मणोः । एकत्वकारफो बंधो रुक्म कांचनयोरिव ॥ ग्रहणं कर्मयोग्यानां पुद्गलानां प्रतिक्षणं । सकषायस्य जीवस्य बंधोऽनेकविधः स्थितः ॥ 4 शतक नामक परिच्छेद में विंशति प्ररूपणाओं की रचना मय यन्त्रों के दिखाई गई है यथा संत्येकाक्षेषु चत्वारि जीवानां विकलेषु षट् । पंचेन्द्रियेषु चत्वारि स्थानानीति चतुर्दश । तिर्यग्गतावशेषाणि द्वे संजिस्थे गतित्रये । जीवस्थानानि ज्ञेयानि सत्येवं मार्गणास्वपि ।। 5. सप्तति नामक अन्तिम परिच्छेद में बन्ध और स्वामित्ववाले गुणस्थानों के प्रति बन्ध कहकर अन्य गति आदि मार्गणा के बन्ध स्वामित्व को कहा गया है । इसके मंगलाचरण और प्रतिज्ञा के विषय का श्लोक निम्न प्रकार है नत्वा जिनेश्वरं वोरं बंधस्वामित्वसूदनम् । वक्ष्याम्योपविशेषाभ्यां बंधस्वामित्वसंभवम् ॥ इस प्रकार पंचसंग्रह में गुणस्थान, जीवसमास और मार्गणास्थान की अंग संदृष्टि एवं प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध की संरचना की गई है। 3. भावना द्वात्रिंशतिका-32 पद्यों का यह छोटा सा प्रकरण है । इसमें सांसारिक पदार्थों से उदासीनता का अनुभव कराके आत्मशुद्धि की ओर ले जाने की भावना व्यक्त की गई है। प्रात्मशुद्धि हेतु यह उत्तम काव्य है जिसके पढ़ने से पवित्र और उच्च भावनाओं का संचार होता है। सर्वप्रथम मैत्री प्रादि भावनाओं को प्रकट किया है
SR No.524761
Book TitleJain Vidya 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1993
Total Pages102
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
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