SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनविद्या-13 ] [ 7 चारित्र, जाति, जरा, मृत्यु, नित्यता, देव, जठर, दुर्जन, सज्जन, दान, मद्यनिषेध, मांसनिषेध, मधुनिषेध, कामनिषेध, वेश्यासंगनिषेध, द्यूतनिषेध, प्राप्त, गुरु और धर्म का स्वरूप, शोक, शौच, श्रावकधर्म और तप का निरूपण इत्यादि का वर्णन अपनी प्रसिद्ध रचना सुभाषित-रत्न-संदोह में प्रसाद-गुण-युक्त विविध छन्दों द्वारा की है। इसी से रचयिता की वर्णन शैली, कल्पनाशक्ति, कवित्व-शक्ति, संस्कृत भाषा का परिज्ञान और उस पर असाधारण अधिकार आदि का परिचय प्राप्त होता है । प्रस्तुत ग्रन्थ के कतिपय उद्धरण निम्न प्रकार हैं ज्ञान के द्वारा जो सुख मिलता है वह माता-पिता, बन्धुजन, स्त्री, पुत्र इत्यादि से नहीं मिल सकता। इसी को ज्ञान-निरूपण-त्रिंशत में निम्न प्रकार दिखाया है माता पिता बन्धुजनः कलत्रं पुत्रः सुहृद् भूमिपतिश्च तुष्टः । न तत्सुखकर्तुमलं नराणां ज्ञानं यदेव स्थितमस्तदोषम् ॥ ___ चारित्रवान व्यक्ति को पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान निर्मल एवं निर्दोष बताकर उसे सच्चा सम्यग्दृष्टि, ज्ञानी एवं गुणज्ञ बताया है - विनिर्मलं पार्वणं चन्द्रकान्तं यस्यास्ति चारित्रमसौ गुणज्ञः । मानी कुलीनो जगतोऽभिगम्यः कृतार्थजन्मा महनीयबुद्धिः ॥ . प्राचार्य मृत्यु के विषय में कहते हैं कि जिस प्रकार सारे गीले पदार्थ एक दिन सूख जाते हैं, सब नदियां समुद्र में चली जाती हैं, सारे खिले हुए पुष्प म्लान हो जाते हैं, संसार के सभी पदार्थ बिजली की भांति चंचल हैं, उसी प्रकार सांसारिक सभी प्राणी एक दिन मृत्यु के मुख में चले जाते हैं सर्व शुष्यति सार्द्रमति निखिला पायोनिधि निम्नगा सर्व म्लायति पुष्पमत्र मरुतो झम्पेव सर्व चलं । सर्व नश्यति कृत्रिमं च सकलं यद्वयंप क्षीयते, सर्वस्तद्वदुपैति मृत्युवदनं देही भवंस्तत्त्वतः ॥ प्राचार्य दुर्जन के विषय में अपने विचार प्रकट करते हुए कहते हैं कि दुर्जन सज्जनों के उपदेशों का उल्लंघन करता है, दो जिह्वात्रों से युक्त कृष्ण सर्प की भांति क्रोधित होकर दुष्ट वचन बोलता है, लाल नेत्रों से युक्त होकर सज्जनों को भयभीत करता है, जैसे सर्प कुटिल गतिवाला होता है वैसे यह भी कुटिलता लिये रहता है, सदा सर्प की भांति छिद्र ही देखता है, ऐसे दुर्जनरूपी सर्प को कोन वश में कर सकता है ?
SR No.524761
Book TitleJain Vidya 13
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1993
Total Pages102
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy