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________________ जैनविद्या 81 ये शरीर और बाह्य परिस्थितियों की सहायता से ही अभिव्यक्त हो सकती हैं । वह इन्द्रियों की सहायता लेकर ही किसी पदार्थ को जान सकता है, किसी कार्य को कर सकता है, सुखानुभव कर सकता है । शरीर के सुचारु रूप से कार्य करने के लिए संतुलित आहार, निद्रा, स्वच्छ जलवायु आदि आवश्यक हैं। इनकी पूर्णतया उपेक्षा कर दिये जाने पर शरीर अशक्त हो जायेगा जिसके परिणामस्वरूप उसकी समस्त ज्ञानात्मक और क्रियात्मक शक्तियाँ लुप्त हो जायेंगी। एक सम्यग्दृष्टि व्यक्ति यह भी जानता है कि उसकी इस पराधीनता का कारण उसके अपने स्वरूप के प्रति अज्ञान, राग, द्वेष, काम, क्रोधादि भाव हैं । ये भाव आत्मा का स्वरूप न होकर कर्मोदयजनित विकारी भाव हैं। जिस प्रकार शुद्ध श्वेत स्फटिक मणि विभिन्न रंगों से युक्त प्रतिभासित होता है, यह विभिन्न रंगयुक्तता उसका स्वाभाविक धर्म न होकर अन्य पदार्थों के संयोग से उत्पन्न आगन्तुक धर्म है। उन पदार्थों का संयोग समाप्त होते ही स्फटिक मणि का विभिन्न रंगमय प्रतिभासन समाप्त हो जाता है तथा वह अपने शुद्ध श्वेत स्वरूप में अवस्थित हो जाता है। इसी प्रकार प्रात्मा भी स्वभावतः अज्ञान, विषयासक्ति, क्रोधादि संवेगों से रहित शुद्ध चैतन्य स्वरूप सत्ता है। उसके ज्ञानदर्शन गुण दर्शनमोहनीय कर्म का उदय होने पर विकृत होकर मिथ्यात्व (अज्ञान) रूप तथा चारित्रमोहनीय कर्म का उदय होने पर राग, द्वेष, क्रोधादि रूप से परिणमित होते हैं । आत्मा का यह विकारी परिणमन कर्मोदयजन्य है तथा ज्ञानावरणीयादि अष्ट कर्मों के नवीन बन्ध का कारण है। इस प्रकार बीजांकुर न्याय से पुद्गल कर्मों के उदय से विकारी भावों की उत्पत्ति, विकारी भावों के द्वारा पुद्गल कर्मों का नवीन बन्ध तथा भविष्य में उन कर्मों का उदय होने पर पुनः प्रात्मा में विकारों की उत्पत्ति का क्रम चलता रहता है। इस प्रकार कर्मों से संयुक्त आत्मा निरन्तर अज्ञान, रागद्वेषादि विकारी अवस्थाओं को प्राप्त कर शरीर से संयुक्त होकर जन्म-मरण करता रहता है तथा कर्मों का संयोग समाप्त हो जाने पर अपने निर्विकार, अनन्त ज्ञानादि गुणों से सम्पन्न चैतन्यस्वरूप में अवस्थित हो जाता है । ऐसा नहीं है कि पुद्गल कर्मों का उदय ही आत्मा के विकारी परिणमन का एकमात्र कारण है । वास्तव में प्रात्मा स्वयं अपने विकारी परिणमन का उपादान कारण तथा कर्मोदय उसका निमित्त कारण है । जिस प्रकार लकड़ी ज्वलन क्रिया का उपादान कारण तथा अग्नि निमित्त कारण है । अग्नि ही लकड़ी को जलाती है, अग्नि के अभाव में लकड़ी नहीं जल सकती लेकिन अग्नि का सद्भावमात्र लकड़ी की ज्वलन क्रिया का एकमात्र कारण नहीं है बल्कि लकड़ी की इस क्रिया हेतु उपादान योग्यता या जल सकने की क्षमता भी इस क्रिया का एक अनिवार्य कारण है। यदि कुछ रासायनिक तत्त्वों के प्रयोगपूर्वक लकड़ी की इस क्षमता को समाप्त कर दिया जाय तो अग्नि द्वारा उसे जलाया जा सकना असम्भव है। अथवा जैसे रोग के कीटाणुओं का शरीर में प्रवेश रोग का अनिवार्य कारण है, इसके बिना व्यक्ति रोगी हो ही नहीं सकता, लेकिन रोगाणुरों का शरीर में प्रवेश होने पर भी वह रोगग्रस्त होगा या नहीं यह उसकी उपादान योग्यता
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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