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________________ प्राचार्य ने इसके श्रागे की गाथा में और भी स्पष्ट करते हुए कहा है- 'धम्मपरिणदो मादा धम्मो धर्मपरिणत श्रात्मा ही धर्म है । दर्शन पाहु की गाथा 2 में 'दंसणमूलो घम्मो' सम्यग्दर्शन को धर्म का मूल बताते हुए उसकी महिमा का इस प्रकार वर्णन किया है 'दसरणभट्ठा, दंसर मटुस्स गत्थि रिगव्वाणं' ॥ 3 ॥ जिनका सम्यग्दर्शन भ्रष्ट है वे भ्रष्ट हैं, उन्हें निर्वारण की प्राप्ति नहीं होती । चारित्रपाहुड में भी उनका कथन है सम्मत्तचररणभट्ठा, संजम चरणं चरंति जे वि गरा । श्रवणाखखाखमूढ़ा, तहवि ग पावंति णिव्वाणं ॥ 10 ॥ सम्यक्त्व से भ्रष्ट होते हुए भी - जो संयमाचरण का पालन करते हैं वे अज्ञानी ज्ञान मूढ़ हैं, उनको भी निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती । वह संयमाचरण दो प्रकार का है - 1. निरागार और 2. सागार । निरागार संयम का पालन गृह त्यागी साधु और सागार संयम का आचरण गृहस्थ करते हैं । लोक में साधुओं की बड़ी महिमा है । वे सच्चे गुरु कहलाते हैं । कबीर ने तो गुरु को गोविंद से भी बड़ा बताया है । आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में कहा है 'गुरुपिता गुरुर्माता गुरुर्देवो गुरुर्गतिः । शिवं रुष्टे गुरुस्त्राता, गुरौ रुष्टे न कश्चन ॥ क्रियासार में भी इसी का अनुकरण करते हुए प्रतिपादित किया है गुरुर्मातापिता स्वामी वांधवः सुहृदः शिवः ॥ गुरु को जहाज से उपमित किया जाता है । जहाज का सबसे बड़ा वैशिष्टय है। उसकी तरण-तारणी शक्ति । जो जहाज स्वयं तैर नहीं सकता वह स्वयं तो डूबता ही है साथ में यात्रियों को भी ले डूबता है । आवश्यक है कि एतदर्थ जहाज का न केवल आकार यथानुरूप हो अपितु उसमें छिद्र आदि किसी भी प्रकार की गड़बड़ी न हो । वास्तव में बाह्य आकार का कोई महत्त्व नहीं है, असली महत्त्व तो है उसकी तरनतारनी शक्ति का । यही बात साधु के सम्बन्ध में भी शत प्रतिशत लागू होती है । इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने साधु का यथाजातरूप आवश्यक बताकर भी तब तक उसे कार्यकारी नहीं माना जब तक कि तदनुरूप भाव न हों । उन्होंने अपने भावपाहुड में स्पष्ट घोषणा की - निश्चय से साधु की प्रथम पहचान उसका भाव ही है - भावोहि पढमलिगं ( 2 ), यदि कोटि-कोटि वर्षों तक भी तपस्या की जाय तो भी भावरहित को सिद्धि प्राप्त नहीं होती -भाव- रहिश्रो रग सिज्झइ जइ वि तवं चरs कोडि-कोडियो ( 4 ), भावरहित वेष से तुम्हें क्या लाभ - कि ते लिंगेरण भाव
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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