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प्रास्ताविक
भगवान् महावीर के प्रमुख गणधर इन्द्रभूति ने उनकी दिव्य वाग्गंगा का अवधारण कर उसे द्वादश अंगों में गुम्फित कर सूत्रबद्ध किया था। यही ज्ञान श्रवण एवं स्मरण परम्परा से एक प्राचार्य से दूसरे प्राचार्य को प्राप्त होता रहा । समय की गति के साथ प्राचार्यों की स्मरणशक्ति क्षीण होती गयी और इसका बहुत सा अंश विस्मरण के गर्त में लुप्त हो गया तो, जो कुछ अंश आचार्यों, उपाध्यायों और साधुओं को स्मृतिशेष था उसे लिपिबद्ध कर उसे स्थायित्व प्रदान करने का प्रयत्न चालू हुआ । जिन महान् प्राचार्यों ने यह प्रयत्न किया, जिनके कारण भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट सर्वसौख्यप्रदायी धर्म का एक अंश आज भी आध्यात्मिक और भौतिक उन्नति का मार्गप्रशस्त करने हेतु हमें सुलभ है उनमें प्राचार्य श्री कुन्दकुन्द का नाम सर्वोपरि है ।
धर्म का हमारे जीवन में बड़ा महत्त्व है । वह हमें जीवनी शक्ति प्रदान करता है, हमारी चेतना को संस्कारित करता है । यद्यपि वह हमें दिखाई नहीं देता किन्तु प्रतिक्षण हम उसका अनुभव कर सकते हैं । वह कहीं बाहर नहीं, हमारे ही भीतर है । उसे बाहर खोजने का प्रयत्न बालू में से तेल निकालने के श्रम के समान व्यर्थ है । ऐसा करना कमरे में खोई सुई को बाहर ढूंढने की भांति श्रम और शक्ति का अपव्यय है । आज तक हम यही करते आ रहे हैं । परिणाम हमारे सामने है ।।
धर्म और धार्मिक अन्योन्याश्रित हैं । प्राचार्य समन्तभद्र के अनुसार 'न धर्मो धामिर्कविना' । धर्मात्माओं के बिना धर्म नहीं रहता । इसी प्रकार धर्म के बिना कोई धर्मात्मा नहीं कहला सकता । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने धर्म के सम्बन्ध में कहा है
चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समो त्ति रिणविट्ठो । मोहक्खोह विहीणो, परिणामो अप्पणो हु समो॥
-प्र.सा. 2.7
-निश्चय से चारित्र ही धर्म है, साम्य को ही धर्म कहा गया है, मोह और क्षोम (राग-द्वेष) से रहित आत्मा का परिणाम ही साम्य है।
आचार्य अमृतचन्द्र ने इसकी टीका में कहा है
-'मिथ्यात्व रागादिसंसरण रूपे भावसंसारे पतन्तः प्राणिनामुद्धृत्य निर्विकारशुद्धचैतन्ये धरत्तीति धर्मः ।' मिथ्यात्व (दर्शन-मोहनीय), रागादि (चारित्र मोहनीय), संसरणरूप, भावसंसार में गिरते हुए प्राणियों का उद्धार करके उनका निर्विकार शुद्धचेतन-स्वभाव में स्थापन कर देता है वह धर्म है ।