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________________ सम्यग्ज्ञान गाणं पुरिसस्स हवदि लहदि सुपुरिसो वि विरणयसंजुत्तो । पारणेण लहदि लक्खं लक्खंतो मोक्खमग्गस्स ॥21॥ बो. पा. पाऊण गाणसलिलं हिम्मलसुविसुद्धभावसंजुत्ता । हुति सिवालयवासी तिहुवणचूडामणि सिद्धा ॥41॥ चा. पा. णारणगुणेहि विहीणा ण लहंते ते सुइच्छियं लाहं । इय जाउं गुणदोसं तं सण्णाणं वियाणेहि ॥42॥ चा. पा. -ज्ञान प्रात्मा में है, उसे विनययुक्त पुरुष ही प्राप्त करता है । ज्ञान द्वारा यह जीव मोक्षमार्ग का चिन्तन करता हुआ लक्ष्य को प्राप्त करता है । -जो व्यक्ति ज्ञानरूपी जल को पीकर निर्मल एवं शुद्धभावों से युक्त हैं वे त्रिभुवन के चूड़ामणि (प्राभूषण) हैं तथा शिवालय में रहनेवाले मुक्त (सिद्ध) हो जाते हैं। -जो (सम्यक्) ज्ञान-गुण से रहित हैं वे भली प्रकार से चाहे हुए लाभ को भी प्राप्त नहीं करते, इस प्रकार गुण-दोष को जानने के लिए (तू) सम्यग्ज्ञान को समझ ।
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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