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________________ 46 जैनविद्या का उपयोग किया जाता है । जैसे किसी व्यक्ति को शुद्धोपयोग की बात समझ में न आये तो उसको शुभ-अशुभ भावों के माध्यम से समझाने का प्रयास किया जाता है । इस प्रकार व्यवहारनय निश्चयनय का निमित्त बन सकता है । लेकिन यदि कोई व्यक्ति व्यवहारनय में ही अटक जाये और उसी को अन्तिम मान ले तो वह व्यवहाराभासी कहलायेगा। ऐसे व्यक्ति धर्म के सार्वभौमिक तत्त्व को जाने बिना धर्म के बाह्य रूपों से ही सन्तुष्ट हो जाते हैं । वास्तव में देखा जाय तो व्यवहारनय उसी समय व्यवहारनय होता है जिस समय वह निश्चयनय की ओर दृष्टि को मोड़नेवाला बने अन्यथा वह व्यवहाराभास ही है। इसी तरह यदि कोई व्यक्ति अपनी वर्तमान स्थिति को विचारे बिना निश्चयनय की दृष्टि से अपने को शुद्ध मान बैठे और शुभ भावों को बन्ध का कारण जानकर हेय कह दे तो वह व्यक्ति निश्चयाभासी होगा। निश्चय दृष्टि को व्यवहार की अपेक्षा है तो व्यवहार दृष्टि को निश्चय की। ये दोनों नय अध्यात्म के लिए अत्यन्त आवश्यक हैं क्योंकि मनुष्य आत्मानुभव पर तुरन्त ही छलांग नहीं लगा सकता । वह शनैः शनैः ही उस ओर अग्रसर होता है । ऐसे समय में निश्चयनय उस दिशासूचक यंत्र की भाँति होता है जो सही दिशा में चलने की प्रेरणा देता रहता है और व्यवहारनय को अपने ऊपर हावी नहीं होने देता । व्यवहार को निश्चय का अनुगमन करनेवाला बनाये रखता है। यदि यह कहा जाय कि निश्चय के बिना व्यवहार अंधा है और व्यवहार के बिना निश्चय कोरा काल्पनिक है तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। मानसिक स्तर पर वे दोनों परस्परापेक्षी हैं। जैसा कहा जा चुका है अनुभव स्तर पर न निश्चय है और न व्यवहार । हमें यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि निश्चय और व्यवहार का वास्तविक 'अनुभव सम्यग्दृष्टि को ही हो सकता है। सम्यग्दृष्टि आत्माएँ दो तल पर जीती हैं। एक तल पर वे अनन्त की ओर उन्मुख हैं तो दूसरे तल पर उनका सान्त से सम्बन्ध है। इन्हें भान हो चुका है कि जिस तल पर वे जा रही हैं वह अन्तिम नहीं है । अतः वे अनन्त मे छलांग लगाने के लिये सदैव उद्यत हैं। ये ऐसी आत्माएँ हैं जिनमें अनन्त के प्रति जागरूकता उत्पन्न हो चुकी है। उनके जीवन में अनन्त और सान्त का संघर्ष मुर्तिमान हो उठा है। ऐसी आत्माओं के अनन्त और सान्त तल को भी निश्चय और व्यवहार कहा जा सकता है। वे जीती हैं व्यवहार तल पर, उन्मुख हो चुकी हैं निश्चय की ओर । सम्यग्दृष्टि के लिए व्यवहार एक विवशता है क्योंकि पाखिर उसे उस तल से उठकर निश्चय तल में जीना ही है । जीवन के इन दो स्तरों का अनुभव केवल सम्यग्दृष्टि को ही हो सकता है । मिथ्यादृष्टि जीव इनका अनुभव नहीं कर सकते क्योंकि उनमें अनन्त के प्रति जागृति का पूर्ण अभाव है । इसलिये कुन्दकुन्द ने समयसार में कहा है-'सर्व लोक को काम, भोग सम्बन्धी बन्ध की कथा तो सुनने में आ गई, परिचय में प्रा गई और अनुभव में आ गई, इसलिये सुलभ है, किन्तु अात्मा का भिन्नत्व न तो सुना है, न परिचय में पाया है और न अनुभव में आया है, अतः एक मात्र वही सुलभ नहीं है।' यह बात आचार्य ने उन जीवों के लिए कही है जो केवल शरीर-तल पर ही जी रहे हैं ।
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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