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________________ 40 जैनविद्या .. क्रम नियमितपरिणामवाद का अर्थ है कि प्रत्येक पर्याय (घटना) का द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव नियत होता है । इस सिद्धान्त को 'नियतिवाद' (Fatalism) के स्थान पर 'नियतत्ववाद' (Determinism) कहना अधिक उपयुक्त है क्योंकि द्रव्य में घटित होनेवाली पर्याय का नियामक कोई बाह्य तत्त्व नहीं होकर वह द्रव्य स्वयं है। द्रव्य स्वयं अपनी पर्याय को 'नियत' करता है। यह नियतत्ववाद 'आत्मनियतत्ववाद' (Self determinism) है और उपादान कारणता (Material Causality) पर आधारित है। नियतत्ववाद के पक्ष और विपक्ष में दर्शन के क्षेत्र में और विशेषकर पाश्चात्य दर्शन में काफी बहस हुई है जिसमें जैनविचारकों को भी भाग लेना चाहिए क्योंकि उनके यहाँ भी नियतत्ववाद (1) सर्वज्ञता की अवधारणा एवं (2) द्रव्य और कारण-कार्य संबंधी सिद्धान्तों के कारण फलित होता है। मुख्य समस्या यह है कि क्या नियतत्ववाद के साथ संकल्पस्वातन्त्र्य और नैतिक उत्तरदायित्व का समन्वय संभव है ? मेरी दृष्टि में जैन दर्शन में शायद हम संकल्प-स्वातन्त्र्य की बात नहीं कर सकते लेकिन व्यक्ति को उसके कर्मों के लिए उत्तरदायी अवश्य ठहराया जा सकता है। मन, वचन या काय से व्यक्ति ने जो कर्म किया वह नियत अवश्य था परन्तु उसे करने के लिए वह बाध्य नहीं था, उसे उसने 'स्वयं, स्वतन्त्र' होकर किया है, अतः कर्म के गुण या दोष के लिए भी वह स्वयं ही जिम्मेदार है। . 1. समयसार, 3 । 2. प्रवचनसार, 177 की अमृतचन्द्रकृत टीका । 3. जीव, अजीव, प्रास्रव, बंध, संवर, निर्जरा एवं मोक्ष । इन सात तत्त्वों अथवा पुण्य व पाप सहित नवपदार्थों के यथार्थ श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं । कुन्दकुन्द के अनुसार इन पदार्थों की यथार्थ श्रद्धा कर्ता-कर्म संबंध की सही समझ पर निर्भर करती है । इसलिए वे समयसार में नवपदार्थों की व्याख्या करते समय 'कर्ता-कर्म अधिकार' लिखते हैं। 4. समयसार, 116-25 व अमृतचन्द्रकृत टीका । 5. वही, 75 की टीका । 6. वही, 99। 7. वही, 103 । 8. वही, 85-86 अमृतचन्द्र दो क्रियावाद को मिथ्यात्व इस प्रकार प्रदर्शित करते हैंक्रिया=परिणाम= परिणामी । अतः यदि एक द्रव्य ने अन्य द्रव्य की क्रिया की तो एक द्रव्य अन्य द्रव्यमय अर्थात् अनेक द्रव्यमय (=मिथ्यात्व) हो गया । 9. वही, 137-40। 10. पंचास्तिकायसंग्रह 61-63, तथा प्रवचनसार, 122 और उस पर अमृतचन्द्र कृत टीका।
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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