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________________ जैन विद्या अतः यह कहा जा सकता है कि जीव और पुद्गलकर्म में कर्ता-कर्म-भाव स्वीकार किये बिना भी कर्मबंध और कर्म-फल- सिद्धान्त की व्याख्या की जा सकती है । 38 प्रत्येक द्रव्य अपने ही भावों का कर्ता है । अतः निश्चयनय से ग्रात्मा अपने भावों का कर्ता है और पुद्गलकर्म अपने भावों का कर्ता है । परन्तु एक द्रव्य का परिणाम अन्य द्रव्य के परिणाम में निमित्त होने से व्यवहारनय से यह कहा जाता है कि श्रात्मा ने पुद्गलकर्म को किया या पुद्गलकर्म ने श्रात्मभावों को किया । 17 व्यवहारनय का तात्पर्य यहाँ उपचार से है । कुन्दकुन्द का कथन है- 'जीव के निमित्त भूत होने पर कर्मबंध का परिणाम होता हुआ देखकर 'जीव ने कर्म किया' ऐसा उपचार मात्र से कहा जाता है । 18 जीव और पुद्गल दोनों द्रव्य ( तथा प्रत्येक द्रव्य ) निरन्तर परिणमित हो रहे हैं । उनके परिणामों में समान्तरता है जिसके आधार पर हम जानते हैं कि इस प्रकार का जीव भाव होने पर इस प्रकार का पुद्गल भाव होता है । जब एक द्रव्य के परिणामविशेष की अन्य द्रव्य के परिणामविशेष के साथ पाये जानेवाले अविनाभाव सम्बन्ध का हमें निर्णय होता है तो उसके आधार पर एक द्रव्य को अन्य द्रव्य के परिणाम का कर्ता उपचार से कहा जाता है । उपचरित कथन भी ज्ञान के साधन होते हैं, यदि उनसे इंगित होनेवाले मुख्यार्थ का ग्रहरण कर लिया जाय । लेकिन यदि उपचार को ही सत्यार्थ मान लिया जाय तो उससे भ्रम ही होगा । जैसे— 'जीव ने कर्म को किया - इस उपचरित कथन का मुख्यार्थ यह है - 'उस समय जीव ने विकार भाव किया और जैसा विकार भाव हुआ वैसा ही कर्मबन्धन हुआ परन्तु उस कर्मरूप अवस्था को कार्मणवर्गणाओं ने स्वयं उत्पन्न किया ।' निमित्त के प्रत्यय को समझने के लिए यहाँ हमें समयसार गाथा - 100 और उस पर अमृतचन्द्र द्वारा रचित टीका पर ध्यान देना चाहिए । ( 1 ) एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का व्याप्य व्यापक भाव से कर्ता नहीं है, अन्यथा इनमें तन्मयता प्राप्त हो जायगी । ( 2 ) एक द्रव्य अपने सामान्य स्वभाव से अन्य का निमित्त भी नहीं है, अन्यथा नित्यनिमित्तत्व का प्रसंग प्राप्त होगा । ( 3 ) प्रत्येक द्रव्य अपने परिणाम का कर्ता है जिसका निमित्त पाकर अन्य द्रव्य परिणमित हो जाते हैं । जैसे कुम्हार वस्तुतः अपने योग और उपयोग को करता है जो कि मिट्टी के घटरूप परिणाम में अनुकूल होने से उस समय मिट्टी घटरूप परिमित हो जाती है। 19 - -- यहां यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या द्रव्य अपने परिणाम के लिए निमित्त की अपेक्षा करता है ? ऐसा नहीं माना जा सकता क्योंकि ( 1 ) प्रत्येक द्रव्य परिणाम - स्वभावी है, अतः बिना परिणमित हुए वह रह नहीं सकता, ( 2 ) निमित्त अन्य द्रव्य में कोई अतिशय उत्पन्न नहीं करता, तथा ( 3 ) इस कथन का कि प्रत्येक द्रव्य स्वयमेव परिणमित होता है - यही अर्थ हो सकता है कि प्रत्येक द्रव्य अपनी योग्यता से, अपने उपादान कारण के अनुसार परिरणमित होता है । उपादान कारण का उत्तरवर्ती जैन दार्शनिकों ने यह लक्षण दिया है कि पूर्व पर्याययुक्त द्रव्य अपनी उत्तर पर्याय का उपादान कारण होता है। पूर्व पर्याय में जिस प्रकार की योग्यता होती है उसी प्रकार की उत्तर
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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