SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनविद्या 6. 2. 3. यहाँ यह शंका उत्पन्न होती है कि यदि जीव अपने ही भावों का कर्ता हो और पुद्गल कर्म भी अपने ही परिणामों के कर्ता हों तो जिन कर्मों को आत्मा ने नहीं किया वे आत्मा को फल क्यों दें तथा आत्मा उस फल को क्यों भोगे ? अथवा अन्यकृतकर्म के फल को अन्य ने भोगा - ऐसा मानना पड़ेगा | 10 कुन्दकुन्द इसका निम्न प्रकार से समाधान करते हैं 1. 4. 5. 377 को किया परन्तु यह 'दो क्रियावाद' मिथ्यात्व होने से स्वीकार नहीं किया जा सकता 18 यदि जीव और पुद्गल दोनों मिलकर एक कार्य को करें तो दोनों के ही या तो रागादिरूपभाव होने चाहिए या दोनों की ही कर्मरूप अवस्था होनी चाहिए परन्तु रागादिरूपभाव तो जीव के ही होते हैं और कर्म - अवस्था पुद्गल द्रव्य की होती है । अतः सिद्ध होता है कि प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने परिणाम का कर्ता है | यह लोक सर्वत्र विविध प्रकार के अनंतानंत सूक्ष्म एवं स्थूल, कर्मत्व के योग्य एवं कर्मत्व के प्रयोग्य, पुद्गल स्कन्धों से गाढ़ा भरा हुआ है । 11 अतः जैसे ही यह जीव कोई उस क्षेत्र में स्थित कर्मत्व के को निमित्त करके जीव के परिणमा कर्मबंध को करता है प्राप्त हो जाता है | 13 विकारी भाव करता है ( जो कि स्निग्ध भाव है ), योग्य पुद्गल स्कन्ध तत्काल ही उस विकारी भाव ( उसका आश्रय करके ) कर्मरूप में स्वयमेव ही ( बिना परिणत हो जाते हैं । 12 इसी प्रकार जब कर्म का उदय नवीन तो उसका निमित्त पाकर तत्काल ही जीव विकार भाव को जिस प्रकार योग्य बाह्य परिस्थिति के होने पर बादल आदि अनेक प्रकार के पुद्गल स्कंध स्वयं ( बिना अन्य कर्त्ता की अपेक्षा किये ) उत्पन्न हो जाते हैं उसी प्रकार जीव-परिणाम को निमित्त करके पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणत हो 14 जब बंधन को प्राप्त ये कर्म अपनी स्थिति पूर्ण करके उदय को प्राप्त होते हैं अर्थात् आत्मा से पृथक् होते हैं तो पुनः श्रात्मा अनेक प्रकार के भावों को प्राप्त करता है और नवीन कर्मबंध हो जाता है | 15 इस प्रकार पुद्गल जीव के परिणाम के निमित्त से कर्मरूप में परिणमित होते हैं और जीव भी पुद्गल कर्म के निमित्त से परिगमन करता है। दोनों एक-दूसरे में कोई गुण ( प्रतिशय) उत्पन्न नहीं करते, परन्तु परस्पर निमित्त से उनके परिणाम होते हैं । अतः श्रात्मा अपने ही भावों का कर्ता है, पुद्गलकर्म द्वारा किये गये भावों का नहीं, ( उनका कर्ता पुद्गल कर्म ही है ) 116
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy