SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 10 जैनविद्या तीन के द्वारा तथा 'पंचास्तिकाय' में गाथा संख्या दस के द्वारा द्रव्य का लक्षण इस प्रकार कहा है अपरिच्चत्तसहावेणुप्पादन्वय धुवत्त संबद्धं । गुणवं च सपज्जायं जत्तं दव्वत्ति वच्चंति ॥ प्र. सा. अर्थात् स्वभाव को छोड़े बिना जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-संयुक्त है तथा गुणयुक्त और पर्यायसहित है उसे 'द्रव्य' कहते हैं । औरदव्वं सल्लक्खरिणयं उप्पादध्वयधुवत्तसंजुत्तं । गुण पज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वहूं ॥५. सं. -अर्थात् जिसका लक्षण सत् है वह द्रव्य है । जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है वह द्रव्य है तथा जो गुण और पर्याय का आश्रय है वह द्रव्य है । कुन्दकुन्द ने द्रव्य को ही सत् और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक कहा है। वह द्रव्य । को सत्ता से अनन्यभूत स्वीकारते हैं। द्रव्य के बिना गुण नहीं रह सकते और गुण के बिना द्रव्य नहीं रह सकता । नाम, लक्षण आदि के भेद से द्रव्य और गुण में भेद होने पर भी दोनों का अस्तित्व एक ही है अतः वस्तुत्वरूप से दोनों अभिन्न हैं। सारांश यह है कि द्रव्य से भिन्न न गुण का कोई अस्तित्व है और न पर्याय का। जैसे सोने से भिन्न न पीलापन है और न कुण्डलादि । अतः द्रव्य से उसके गुण और पर्याय भिन्न नहीं हैं। चूंकि सत्ता द्रव्य का स्वरूपभूत अस्तित्व नामक गुण है अतः वह द्रव्य से भिन्न कैसे हो सकती है ? इसलिए द्रव्य स्वयं सत्स्वरूप है। द्रव्य सत् है, गुणपर्यायवाला है और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है । आचार्य कुन्दकुन्द ने इन तीन लक्षणों के द्वारा द्रव्य के स्वरूप का विश्लेषण किया है जो बतलाता है कि जैनदशन में एक ही मूल पदार्थ है और वह है द्रव्य । वह अनन्त गुणों का एक अखण्ड पिण्ड होने से गुणात्मक है । गुणों से भिन्न द्रव्य का और द्रव्य से भिन्न गुणों का कोई पृथक् अस्तित्व नहीं है । गुण परिणमनशील हैं। अतः द्रव्य केवल गुणात्मक ही नहीं है पर्यायात्मक भी है।। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने 'नियमसार' गाथा पन्द्रह में पर्याय के दो भेद किये हैंविभावपर्याय और स्वभावपर्याय । अन्यनिरपेक्ष परिणमन को स्वभावपर्याय और अन्यसापेक्ष परिणमन को विभावपर्याय कहते हैं। जीव और पुद्गल में स्वभाव और विभाव दोनों हैं। उनमें से सिद्ध जीवों में तो स्वभावपर्याय ही है और संसारी जीवों में विभाव की मुख्यता है । पुद्गल परमाणु में स्वभावपर्याय है तथा स्कन्ध में विभावपर्याय ही है क्योंकि परमाणु के गुण स्वाभाविक और स्कन्ध के गुण वैभाविक हैं । परमाणु का परिणाम अन्यनिरपेक्ष होता है और स्कन्धरूप परिणमन अन्यसापेक्ष होता है ।
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy