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________________ जैनविद्या अइसोहण जोएणं सुद्धं हेमं हवेइ जह तह य । कालाईलद्धीए अप्पा परमप्पो हवदि ॥ 24, मो. पा. आचार्य कुन्दकुन्द ने बाह्याचार का खण्डन किया है। यहाँ तक कि जैनधर्म के मूलाधार 'लिंगग्रहण' आदि का भी विरोध किया और कहा कि जो साधु बाह्य लिंग से युक्त है, अभ्यन्तर लिंगरहित है, वह आत्मस्वरूप से भ्रष्ट है और मोक्ष-पथ-विनाशक है । यथा बाहिरलिंगेण जुदो अन्भंतर लिंगरहियपरियम्मो। सो सगचरित्रभट्ठो मोक्खपहविरणासगो साहू ॥ 61, मो. पा. आचार्यश्री का विश्वास था कि ऐसे व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिल सकता जो 'भाव' से रहित है, वह चाहे अनेक जन्मों तक विविध प्रकार के तप करता रहे और वस्त्रों का परित्याग कर दे । यथा भावरहिनो रण सिज्झइ जइ वि तवं चरइ कोडिकोडीयो। जम्मंतराइ बहुसो लंबियहत्थो गलियवथो॥4, मा. पा. स्व-संवेद्यज्ञान और पुस्तकीय ज्ञान में भारी अंतर है । सभी संतों ने यह स्वीकारा है कि मात्र बाह्यज्ञान या पुस्तकज्ञान से कोई भी व्यक्ति 'परमतत्त्व' को जान नहीं सकता । उसके लिए अनुभूति और स्वसंवेद्य ज्ञान की अपेक्षा होती है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं कि अनेक शास्त्रों को पढ़ना तथा बहुविध बाह्यचारित्र करना, बालचरित्र के सदृश है, आत्मस्वभाव के प्रतिकूल है । यथा जदि पढ़दि बहुसुदाणि य जदि कहिदि बहुविहे य चारित्ते। तं बालसुदं चरणं हवेइ अप्पस्स विवरीदं ॥ 100, मो. पा. जगत् में जो कुछ है वह द्रव्य हो या गुण हो या पर्याय हो, सबसे पहले सत् है उसके पश्चात् ही वह अन्य कुछ है। जो सत् नहीं है वह कुछ भी नहीं है । अतः प्रत्येक वस्तु सत् है । सत् के भाव को ही सत्ता या अस्तित्व कहते हैं। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने 'पंचास्तिकाय' में सत्तास्वरूप इस प्रकार व्यक्त किया है सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरूवा अणंतपज्जाया । भंगुप्पादधुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि एक्का ॥ 8 ॥ - अर्थात् सत्ता सब पदार्थों में रहती है, समस्त पदार्थों के समस्त रूपों में रहती है, समस्त पदार्थों की अनन्त पर्यायों में रहती है, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है, एक है और सप्रतिपक्षा है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने सत्ता को सप्रतिपक्षा बतलाकर वस्तु-विज्ञान का यही रहस्य उद्घाटित किया है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने 'प्रवचनसार' के ज्ञेयाधिकार में गाथा संख्या
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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