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________________ जनविद्या 153 अष्टपाहुड में सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र पर ही विशेष रूप से प्रकाश डाला गया है । रत्नत्रय ही मोक्ष का मार्ग है । सम्पूर्ण ग्रंथ में इसी का विशद विवेचन किया गया है । प्रस्तुत लेख में बोधपाहुड के विषय पर विशेष प्रकाश डाला जा रहा है । बोधपाहुड में प्राचार्य ने मंगलाचरण के पश्चात् विषय-निरूपण की प्रतिज्ञा करते हुए कहा है कि छहकाय के जीवों को सुख देनेवाले सर्वज्ञकथित धर्म का निरूपण करूंगा जिससे धर्ममार्ग में सावधान होकर कुमार्ग को छोड़ा जा सके । बोधपाहुड को प्राचार्य ने 11 भागों में बांटा है-पायतन, चैत्यगृह, जिनप्रतिमा, दर्शन, जिनबिंब, जिनमुद्रा, ज्ञान, देव, तीर्थंकर, अरहंत और विशुद्ध प्रव्रज्या । प्रायतन-पांच महाव्रत का धारी ऋषीश्वर, संकल्प-विकल्प से दूर शुद्धात्मा एवं सर्वज्ञ ही आयतन है । भेषधारी, पाखंडी, विषय-कषाय में आसक्त परिग्रहधारी धर्म के आयतन नहीं हैं। चैत्यगृह-जो महाव्रती मुनि स्वयं ज्ञानमयी होकर ज्ञानस्वरूप एवं चेतनास्वरूप आत्मा को जानता है वही चैत्यगृह है। आपा-पर के भेद को जाननेवाला संयमी मुनि चैत्यगृह है, अन्य पाषाण आदि का मंदिर चैत्यगृह नहीं है। जिनप्रतिमा-निग्रंथ वीतरागमुद्रास्वरूप रत्नत्रयधारी संयमी मुनि की चलतीफिरती देह ही जिनप्रतिमा है। धातु-पाषाण की दिगम्बरस्वरूप प्रतिमा तो व्यवहार प्रतिमा है। दर्शन-अष्टांग सम्यग्दर्शन, अष्टविध सम्यग्ज्ञान एवं त्रयोदश प्रकार सम्यग्चारित्र के धारी बाह्य-अभ्यन्तर परिग्रह से रहित साक्षात् ज्ञानस्वरूप मुनि ही दर्शन है । यह बाह्यदर्शन है, अंतरंगदर्शन तो सम्यक्त्व है। वैसे दर्शन का अर्थ मत या मान्यता भी है। जैनदर्शन में मुनि, श्रावक, आर्यिका का भेष बाह्यदर्शन एवं इन की श्रद्धा को अंतरंग दर्शन कहा है। जिनबिब-अहंत् सर्वज्ञ का प्रतिबिम्बस्वरूप, दीक्षा-शिक्षा का दाता, वीतरागी एवं संयमी आचार्य परमेष्ठी ही दर्शन-ज्ञानमयी चेतना भावसहित जिनबिंब है अन्य प्रतिबिंब तो गौण हैं। जिनमुद्रा-बनारसीदासजी ने "जिनमुद्रा जिन सारखी" जिनमुद्रा को जिनेश्वर समान ही कहा है। वैसे दृढ़ संयमी, इन्द्रियों के वशीभूत होकर विषय-कषाय में प्रवृत्ति नहीं करनेवाले ज्ञानानंदस्वभावी मुनि को ही जिनमुद्रा कहा है । ज्ञान-अपने स्वरूप को जानलेना ज्ञान है । जो संयम ग्रहण कर ध्यान, तप आदि तो करता है किंतु जब तक आत्मरूप को नहीं जाने तो ये सब वृथा हैं। अपने आपको जानने से ही लक्ष्य की पूर्ति होती है । जैसे-जब तक बाण नहीं होगा लक्ष्य-वेध नहीं किया जा सकता वैसे ही बिना ज्ञान के मोक्षमार्ग नहीं पाया जा सकता। देव-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के कारणस्वरूप ज्ञान को देनेवाला देव कहा जाता है । जिसने चारों पुरुषार्थ प्राप्त करने हेतु दीक्षा धारण की है वह देव है । दशलक्षणरूप
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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