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________________ 152 जैनविद्या जैसाकि ऊपर कहा गया है प्राचार्य कुन्दकुन्द दो हजार वर्ष पूर्व हुए. उनने जैनजगत् में अध्यात्म की ज्योति जगायी। उनने अपने संयम एवं तपस्यामय जीवन में आत्मतत्त्व की खोज की और बतलाया कि सच्चा सुख क्या है और वह कैसे प्राप्त हो सकता है। उनने निम्नग्रंथों में अपने ज्ञानघट को उंडेला और जगत् को बताया कि जब तक हम अपने आपको नहीं पहिचानेंगे सुखी नहीं हो सकते । अपने आपको जाननापहिचानना ही एक बहुत बड़ी कला है । 1. समयसार, 2. प्रवचनसार, 3. नियमसार, 4. रयणसार, 5. पंचास्तिकाय, 6. अष्टपाहुड और 7. द्वादशानुप्रेक्षा । उक्त ग्रंथ जैनवाङ्मय के प्राण हैं। इनके आधार पर जैनदर्शन का महल खड़ा है । कहते हैं-प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपने जीवनकाल में ऐसी ऋद्धि प्राप्त करली थी जिसके कारण वे सदेह विदेह क्षेत्र में सीमंधर स्वामी की समवसरण सभा में गये और साक्षात् तीर्थंकर से ज्ञान प्राप्त कर लौटे, इसी ज्ञान को उनने उक्त ग्रंथों के माध्यम से जनता तक पहुंचाया। उक्त ग्रंथ प्राकृत भाषा में सूत्ररूप में रचे गये जिनपर अमृतचन्द्राचार्य तथा अन्य आचार्यों ने वृहद् टीकाएँ लिखीं। प्राचार्य कुन्दकुन्द अपने समय के एक अद्वितीय विद्वान् थे जिनने अध्यात्म जैसे शुष्क विषय पर गहन अध्ययन एवं मनन किया और वह मार्ग प्रशस्त किया जिसे मोक्षमार्ग कहा जाता है । समाज ने भी उनको भुलाया नहीं अपितु सर्वोच्च स्थान दिया तथा आजतक अक्षुण्ण रूप से उनकी आम्नाय एवं परम्परा को बराबर कायम रखा। मूर्तिपाद लेखों, शिलापट्टों तथा ग्रंथ प्रशस्तियों में अब तक मूलसंघ की परम्परा का उल्लेख किया जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द के पांच नाम थे जैसाकि षट्पाहुड के टीकाकार श्रुतसागर सूरि ने प्रत्येक पाहुड के अंत में उल्लेख किया है-श्री पद्मनंदि, कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य एलाचार्य और गृद्धपिच्छाचार्य । ईडर भंडार की पट्टावली में भी ये ही नाम दिये गये हैं प्राचार्यकुन्दकुन्दाख्यो वक्रग्रीवो महामुनिः । . एलाचार्यो गृद्धपृच्छः पद्मनंदीति तन्नुतिः ॥ प्राचार्य कुन्दकुन्द की जो सात रचनाएं उपलब्ध हैं उनमें अष्टपाहुड भी एक है। अष्टपाहुड में आठ पाहुड हैं-दर्शनपाहुड, सूत्रपाहुड, चारित्रपाहुड, बोधपाहुड, भावपाहुड, मोक्षपाहुड, लिंगपाहुड और शीलपाहुड । इनमें से श्रुतसागरसूरि ने लिंगपाहुड और शीलपाहुड को छोड़कर शेष षट्पाहुड की टीका की है। जयपुर के प्रसिद्ध विद्वान् पं. जयचंदजी छाबड़ा ने अष्टपाहुड की टीका संवत् 1867 भादवा सुदी 13 को समाप्त की है।
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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