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________________ 124 जैनविद्या आत्मा की राग-द्वेषादि-युक्त नर-नारकादि संयोगी पर्यायमात्र को ही वास्तव में आत्मा समझलेनेवाला भी भ्रम में है। स्त्री-भेष धारण कर बहुरूपिया भी यदि स्वयं को स्त्री ही मान ले तो वह भी भ्रमित कहा जायगा क्योंकि उसने अपने पुरुषत्व को भुला दिया। वैसे ही अपने चैतन्यज्ञानदर्शनमयीस्वरूप को भुलाकर संयोगी पर्यायों (नरनारकादि) में आत्मबुद्धि करनेवाला व्यक्ति भी भ्रमित (मिथ्यादृष्टि, बहिरात्मा) कहा जायगा । सम्यग्दृष्टि वही है जो संसार में अपने ज्ञानानंदमयीस्वरूप का नाना नरनारकादि पर्यायों एवं राग-द्वेषादि विकारी भावों को हेय मान उन्हें प्रात्मा के शुद्ध स्वरूप से भिन्न अनुभव कर लेता है। यही निश्चय-व्यवहार का सम्यक् ज्ञान है जो आत्मा की द्रव्य-गुणपर्यायात्मक स्थिति का यथार्थ बोध कराता है। इसके सिवाय समयसार के टीकाकार श्रीमज्जयसेनाचार्य ने निश्चय और व्यवहार नयों को जो क्रमशः द्रव्य और पर्याय को विषय करते हैं, दो नेत्रों की उपमा दी है। जैसे एक नेत्र को बंद कर दूसरे नेत्र से देखने पर नाक की दूसरी ओर स्थित पदार्थ जो कि विद्यमान हैं दिखाई नहीं देते उसी प्रकार निश्चयदृष्टि में व्यवहार की विषयभूत पर्यायें भी दृष्टि में नहीं आती या गौण हो जाती हैं किंतु वे हैं, नहीं हैं या काल्पनिक हैं, ऐसा नहीं है । इसीलिए उभय नयों से वस्तु का द्रव्य-गुण-पर्यायात्मक-स्वरूप जानना प्रामाणिक दृष्टि से सम्यग्ज्ञान कहा गया है। अतः वस्तु स्वयं निश्चय-व्यवहारात्मक होने से अनेकांतात्मक है। इसीलिए निश्चय और व्यवहार नय भी परस्पर सापेक्ष रहकर ही वस्तु का अनेकांतात्मक ज्ञान कराने के कारण सुनय कहे गये हैं और दोनों निरपेक्ष नय मिथ्या । स्वामी समन्तभद्र ने इसका स्पष्टीकरण निम्न शब्दों में किया है"निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तुतोऽर्थकृत्" । 108 । -प्राप्तमीमांसा निष्कर्ष के रूप में निश्चय और व्यवहार के द्वारा प्राचार्यों ने समयसार एवं अन्य ग्रंथों में आत्मा के आधार पर जो उनकी दृष्टियों का स्पष्टीकरण किया है उसे यहाँ संक्षेप में दर्शाना उचित होगा 1-शुद्ध निश्चय नय की दृष्टि में प्रात्मा कर्मों से अबद्ध, अस्पर्श, अनन्य (एक, अखंड), नियत और अविशेष प्रतीत होता है और व्यवहार नय की दृष्टि में वही संसारी आत्मा कर्मों से बद्ध, शरीरादि से स्पर्श करता हुआ देव, मनुष्यादि पर्यायों को धारण कर अन्य-अन्य तथा क्रोध-मानादि विविध भावों को करता हुआ अनियत (क्रोधी, मानी आदि) ज्ञान-दर्शनादि अनेक गुणवाला सविशेष और मोहादि विकारों से संयुक्त प्रतीत होता है। दोनों नयों की दृष्टियाँ अपनी-अपनी दृष्टि से भूतार्थ हैं (सत्य हैं)। -समयसार गाथा 14, (अमृतचन्द्राचार्य-टीका)
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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