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________________ जैनविद्या 123 यदि कहा जाय कि पर्यायें स्थायी न रहकर सदा उत्पन्न और नष्ट होती रहती हैं इसलिए हम उन्हें महत्त्व नहीं देते और न उन्हें मानते हैं तो कहना होगा कि फिर आत्मा की संसार और मुक्त दशा भी अमान्य ठहरेगी और संसार की अशुद्ध दशा से मुक्त होने के लिए मोक्षमार्ग के उपदेश की कोई आवश्यकता न रहेगी। आचार्यश्री कुन्दकुन्द का समयसार में यद्यपि शुद्ध-निश्चय-नय की प्रधानता से आत्म-स्वरूप को दर्शाने का उद्देश्य रहा है तथापि उन्होंने व्यवहार नय की सर्वथा उपेक्षा न कर उभय नयों की समन्वित दृष्टि को अपनाया है। समयसार के जीवाधिकार की 13वीं गाथा में सम्यक्त्व का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं भूदत्थेरणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च । प्रासवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ॥ 13 ॥ अर्थात् जीव, अजीव, पुण्य, पाप, प्रास्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये नव तत्त्व हैं जो कि जीव और अजीव की विशेषताएं या पर्यायें होने से अभूतार्थ (व्यवहार) नय के विषय हैं और भेदरूप अनुभव में आ रही हैं। यदि इनमें भेदों को गौण कर अभेददृष्टि की मुख्यता से एक अखंड चैतन्यस्वरूपी अात्मा की व्यापकता को देख लिया जाय तो वही सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन (आत्मदर्शन) है। दूसरे शब्दों में इन नव तत्त्वों में पर्यायदृष्टि से जो कथंचित् पृथक्ता है उसे गौण कर उनमें आत्मत्व की दृष्टि से एकरूपता का अनुभव कर लेना सम्यक्त्व है । प्राचार्यश्री ने आस्रवादि भेदरूप पर्यायों में एक (शुद्ध) आत्मतत्त्व के दर्शन कराये हैं । अज्ञानियों को वस्तु में विद्यमान गुणों और पर्यायों को दरशाये बिना किसी भी द्रव्य का ज्ञान कराना शक्य नहीं है । प्रात्मा एक अखंड वस्तु है, वह एक होकर भी अनेक गुणों और पर्यायों का पुंज है तथा अखंड आत्मा में गुण-पर्यायों का भेद करना व्यवहार नय का विषय है । वस्तुतः आचार्यश्री ने आत्मा की बंध आदि पर्यायों में शुद्ध नय से अखंड-अभेदस्वरूप आत्मा की व्यापकता का अनुभव कर लेने को सम्यक्त्व कहा है। आचार्यश्री ने निश्चय-व्यवहार का इस प्रकार सुन्दर समन्वय कर जिनवाणी के अनेकांतात्मक सत्य को भी उजागर कर दिया है जबकि प्रात्मा को पर्यायविहीन मानकर उस के दर्शन कर लेना असंभव है। उन्होंने व्यवहार नय की उपयोगिता दरशाते हुए समयसार की आठवीं गाथा में यह भी दर्शाया है कि व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश नहीं दिया जा सकता क्योंकि संसारी जीव व्यवहार को ही जानते हैं और उसी के द्वारा परमार्थ को समझ सकते हैं अतः उन्होंने नव तत्त्वों में जो व्यवहार के विषय हैं एक प्रात्मतत्त्व के दर्शन कराये हैं। जैसे बहुरूपिया स्त्री आदि अनेक भेषों को धारण करता हुआ भी व्यक्ति की दृष्टि से एक है वैसे ही प्रात्मा भी प्रास्रव आदि अनेक पर्यायों को धारण करता हुआ एक है । जैसे बहरूपिया को स्त्री के भेष में देखकर उसे स्त्री ही मानलेनेवाला भ्रम में है वैसे ही
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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