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________________ 120 जैनविद्या पलटना भी कहते हैं। यह परिवर्तन समान और असमान रूप में यथायोग्य अनुकूल या प्रतिकूल निमित्तों के मिलने पर स्वाभाविकरूप में हुआ करता है। परिवर्तन के होने पर भी कोई द्रव्य दूसरे द्रव्य के रूप में परिवर्तित नहीं होता है और न उसके गुण भी अन्य द्रव्य के गुणों रूप परिवर्तित होते हैं जबकि उसकी पर्यायें उसी गुण या द्रव्य रूप में सदा ही अपनी मर्यादा में रहकर परिवर्तित होती रहती हैं । __ जैसे एक जीव अनादिकाल से देव, नारकी, मनुष्यादि अनेक पर्यायों को धारण करता हुआ भी जीव ही बना रहता है और उसके ज्ञानादि गुणों तथा भावों में भी प्रतिक्षण परिवर्तन होते हुए भी उनका अजीव के गुणों रूप परिणमन नहीं होता। प्रत्येक वस्तु में अगुरुलघु गुण होने से उसके गुणों में षड्गुणी हानि-वृद्धि होने पर भी वह समूल नष्ट नहीं होती। चूंकि गुणों का वस्तु के साथ तादात्म्य संबंध होता है, अत: गुणों का परिणमन भी वस्तु का ही परिणमन कहलाता है। उपर्युक्त कथन, 'गुणपर्ययवद्रव्यं', 'सद्रव्यलक्षणं' एवं 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' तत्त्वार्थसूत्र के इन प्रामाणिक सूत्रों पर आधारित है। नय और नयाभास-इस प्रकार वस्तु का यह द्रव्य-गुण-पर्यायात्मक स्वरूप नाना गुण-पर्यायात्मक होने से अनेकांतात्मक है। वस्तु-स्वरूप को जानने के प्रमाण और नय ये दो प्रमुख साधन हैं। प्रमाण वस्तु को सर्वांग जानता है और नय अंश रूप में । प्रामाणिक ज्ञान में सभी नयों की परस्पर सापेक्षता भी बनी रहती है तभी वे अनेकांतात्मक सत्य के द्योतक कहे गये हैं। नयों के द्वारा वस्तु के एक-एक अंश का ज्ञान होने से वे प्रमाण के अंश भी कहे जाते हैं । प्रत्येक सुनय वस्तु में विद्यमान किसी विशेषता का ज्ञान कराता हुअा अन्य विशेषताओं का निषेध नहीं करता, केवल उनकी विवक्षा न होने से उन्हें गौण ही करता है तथा अंतरंग में उन्हें स्वीकार भी किये रहता है, तभी वह अन्यनय-सापेक्ष रह कर जैनदर्शन में सम्यग्ज्ञान का अंश कहा गया है। यदि कोई नय वस्तु की एक विशेषता का वर्णन करता हुआ उसमें विद्यमान अन्य विशेषताओं को गौण न कर उनका निषेध करने लगता है, जिसका उसे कोई अधिकार नहीं है तब वह सुनय न रहकर दुर्नय या नयाभास बन जाता है और फिर उसका कथन एकांतवाद तथा उसकी श्रद्धा मिथ्यात्व कहलाती है। जैसे हाथी की पूंछ को ही हाथी मानने या समझने वाला भ्रमित और एकांती है वैसे ही वस्तु के एक अंश को ही पूर्ण वस्तु मानने या समझने वाला भी एकांती ही है। ___नयों के भेद-जैनदर्शन में वस्तु को द्रव्यप्रधान दृष्टि से देखनेवाला द्रव्यार्थिक और पर्यायप्रधान दृष्टि से देखने व कथन करने वाला पर्यायाथिक नय कहा व माना गया है किंतु अध्यात्मग्रंथों में द्रव्याथिक का निश्चय और पर्यायाथिक नय का व्यवहार नामों से प्रयोग किया गया है । नयों के ये ही मुख्य दो भेद हैं । समयसार में निश्चय और व्यवहार-आचार्यश्री कुन्दकुन्द ने समयसार ग्रंथ में
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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