SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनविद्या 117 -जो कोई जीव सिद्ध हुए हैं वे भेदविज्ञान से ही हुए हैं और बद्ध जीव भेदविज्ञान के अभाव के कारण भेदज्ञानोच्छलनकलनाच्छुद्धतत्त्वोपलम्माद्रागग्रामप्रलयकरणात्कर्मणां संवरेण । बिभ्रत्तोषं परमममलालोकमम्लानमेकं ज्ञानं ज्ञाने नियतमुदितं शाश्वतोद्योतमेतत् ।। 132 ॥ -जीव को भेदविज्ञान की प्राप्ति होने पर शुद्धतत्त्व का उपलम्भ अर्थात् ज्ञान होता है और इस प्रकार रागसमूह का विनाश हो जाने से कर्मों का संवर होने पर तोष को प्राप्त उत्कृष्ट अमलप्रकाशवाला निर्दोष अद्वितीय ज्ञान नियम से उदित होकर ज्ञानरूप में शाश्वत प्रकाशमान होता है । समयसार की रचना में जो कम पाया जाता है उससे भी यही भाव प्रकट होता है जो निम्नप्रकार है प्रथम गाथा में प्राचार्य कुन्दकुन्द ने जो सिद्धों को नमस्कार किया है उससे मुमुक्षु जीव के लक्ष्य का निर्धारण होता है। दूसरी गाथा में यह बतलाया गया है कि जो जीव अभेददृष्टि से अपने अखण्ड स्वभावभूत ज्ञान में और भेददृष्टि से दर्शन, ज्ञान और चारित्र में स्थिर रहें उन्हें स्वसमय कहा जाता है तथा जो जीव पुद्गलकर्मप्रदेशों में स्थित हैं अर्थात् पुद्गलकर्मों से बद्ध होने के कारण परपदार्थों में अहंबुद्धि और ममबुद्धि करते हैं वे परसमय कहलाते हैं। तीसरी गाथा में यह शंका उठाई गयी है कि लोक में जितने पदार्थ हैं वे सब अपने अखण्ड एक स्वभाव में रहकर ही सर्वदा सुन्दरता को प्राप्त हो रहे हैं, इसलिए जीव के विषय में बंध की कथा विसंवादपूर्ण हो जाती है । चतुर्थ गाथा में इस शंका का इस प्रकार समाधान किया गया है कि अनादिकाल से प्रत्येक जीव को काम, भोग और बन्ध की कथा ही सुनने में आई है, देखने में आई है और अनुभूत होती आई है, अतः उसके अखण्ड एक स्वरूप का ज्ञान होना उसे सुलभ नहीं है । इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने पाँचवीं गाथा में प्रात्मा के उस अखण्ड एक स्वरूप को समयसार में स्पष्ट करने की प्रतिज्ञा की है और छठी गाथा में आत्मा के उस अखण्ड एक स्वरूप को स्पष्ट कर दिया गया है । इसके पश्चात् गाथा 13 में आचार्यश्री ने आध्यात्मिक मार्ग में उपयोगी जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष इनको (जैसे हैं उसी रूप में) जिस जीव ने जाना है उसे सम्यग्दृष्टि बतलाया है । इससे निर्णीत होता है कि उन पदार्थों को उनके पृथक्-पृथक् स्वरूप के आधार पर जानकर परपदार्थों में अहंबुद्धि और ममबुद्धि का त्याग करना ही भेदविज्ञान है । इसके आगे प्राचार्य कुन्दकुन्द ने जीवाधिकार में जीव के स्वरूप का, अजीवाधिकार में अजीव के स्वरूप का, कर्तृकर्माधिकार में जीव और अजीव के मध्य वास्तविक कर्ता और कर्म की व्यवस्था के निषेध का, पुण्यपापाधिकार में पुण्य और पाप का, प्रास्रवाधिकार में प्रास्रव का, संवराधिकार में संवर का, निर्जराधिकार में निर्जरा का, बन्धाधिकार में बन्ध
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy