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जनविद्या
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लगता है कि उन्होंने इसे जीवन के अन्त में तब बनाया है जब वे इसके पूर्व कई ग्रन्थ रच चुके थे और समकालीन दार्शनिक मान्यताओं का अच्छी तरह अभ्यास कर चुके थे । तभी वे इसमें अपने समग्र मुनि-जीवन और पागमाभ्यास से अजित अनुभव को अस्खलित भाव से विन्यास कर सके । यह निःसन्देह अमृत-कलश है। :
प्रों शान्तिः ।
1. वन्द्यो विभुर्भुवि न कैरिह कौण्डकुन्दः कुन्दप्रभा-प्रणयि-कीति-विभूषिताशः । यश्चारूचारण-कराम्बुज-चंचरीकश्चक्रे श्रुतस्यभरते प्रयत: प्रतिष्ठाम् ॥
-श्रवणबेलगोला, चन्द्रगिरि-शिलालेख ।
................. कोण्डकुन्दो यतीन्द्रः ।। रजौभिरस्पृष्टतमत्वमनतर्बाह्योऽपि संव्यंजयितुं यतीशः । रजः पदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये ततुरंगलं संः ॥
__-श्रवणबेलगोला, विन्ध्यगिरि शिलालेख । 2. डॉ० दरबारीलाल कोठिया, 'प्राचार्य कुन्दकुन्द का प्राकृतवाङ्मय और उनकी
देन' शीर्षक लेख, 'जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्रपरिशीलन' पृ. 24 से 30, वी. से.
म. ट्रस्ट । 3. मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दार्यों जैनधर्मोऽस्तु मंगलं ।
-शास्त्र-प्रवचन का मंगलाचरण पद्य । 4. वंदित्तु सव्वसिद्धे धुवमचलमणोवमं गदि पत्ते ।
वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुदकेवलीभणियं ।। 1 ।। समयसार 5. जो समय पाहुडमिणं पढिदूण य अत्थतच्चदो णादुं ।
अत्थे ठाहिदि चेदा सो होहिदि उत्तमं सोक्खं ॥ 415 ।। समयसार 6. पासंडिय लिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु ।
कुव्वंति जे ममत्तं तेहि ण णादं समयसारं ।। 413 ।। समयसार 7. नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते । चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे । 1 ।
-समयसार कलश 8. समयसार कलश, 3। 9. .................."समयप्रकाशकस्य प्रभृताहृवस्याहत्प्रवचनावयवस्य स्वपरयोरनादिमोहप्रहाणाय भाववाचा द्रव्यवाचा व परिभाषणमुपक्रम्यते ।"
-वही, गाथा 2 की व्याख्या ।