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________________ 107 जैनविद्या शुद्ध आत्मा के प्रदर्शन में ) अनावश्यक है क्योंकि वह परमार्थ का दिग्दर्शक नहीं है ?' इसका उत्तर आचार्य कुन्दकुन्द एक उदाहरण द्वारा व्यवहारनय की आवश्यकता को भी प्रकट करते हुए कहते हैं 24 - ' जैसे अनार्य को उसकी भाषा के बिना वस्तु का स्वरूप ( अनेकान्त आदि) समझाना अशक्य है और उसकी भाषा बोलकर उसे उसका स्वरूप समझाना शक्य है उसी प्रकार संसारी जीवों को व्यवहारनय के बिना एकत्व - विभक्त शुद्ध आत्मा का स्वरूप समझाना भी अशक्य है, इसलिए उसकी आवश्यकता है।' यहाँ कुन्दकुन्द ने अनुमान के एक अवयव उदाहरण को स्वीकार कर स्पष्टतया दर्शन को स्वीकारा है । 5. यों तो अध्यात्म में निश्चयनय और व्यवहारनय दोनों को यथास्थान महत्त्व प्राप्त है किन्तु अमुक अवस्था तक व्यवहार ग्राह्य होते हुए भी उसके बाद वह छूट जाता है। या छोड़ दिया जाता है । निश्चयनय उपादेय है । व्यवहार जहाँ प्रभूतार्थ है वहाँ निश्चयनय भूतार्थ है । इस भूतार्थ का आश्रय लेने से वस्तुतः जीव सम्यग्दृष्टि होता है 25 प्राचार्य कुन्दकुन्द ने गाथा 11 व 12 में यही सब प्रतिपादन किया है । यहाँ भी उनका स्याद्वाद समाहित है जो तीर्थंकरों का उपदेश है । यहाँ हम आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा इस ग्रन्थ की व्याख्या ( गाथा - 12 ) में उद्धृत एक प्राचीन गाथा को देने का लोभ संवरण नहीं कर सकते । वह इस प्रकार है जई जिरणमयं पवज्जइ ता मा ववहार रिणच्छए मुयह । एक्केरण विरगा छिज्जइ तित्यं श्रणेण उरण तच्चं ॥ -यदि जनमत की प्रवृत्ति प्रचार चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों को मत छोड़ो । व्यवहार को छोड़ देने पर तीर्थ का उच्छेद हो जायगा और निश्चय को छोड़ देने पर तत्त्व (स्वरूप) का नाश हो जावेगा । अतः दोनों नय सम्यक् हैं और ग्राह्य हैं । 6. यथार्थ में नयों के द्वारा वस्तु को समझना और समझाना दर्शनशास्त्र का विषय है । प्राचार्य गृद्धपिच्छ ने 'प्रमाणनयैरधिगम:' ( त. सू. 1-6 ) इस सूत्र द्वारा स्पष्ट बतलाया है कि जहाँ प्रमाण वस्तु को जानने का साधन है वहाँ नय भी उसे जानने का साधन है इसलिए प्रमाण और नय दोनों को न्याय कहा गया है | 26 दोनों में अन्तर यही है कि जहाँ प्रमाण अखण्ड वस्तु (धर्मी ) को ग्रहण करता है वहाँ नय उसके अंशों (धर्मो ) को जानते हैं । अतः कुन्दकुन्द का निश्चय और व्यवहार नयों द्वारा विवेचन उनकी दार्शनिक दृष्टि को प्रदर्शित करता है । इन दोनों में भेद बतलाते हुए वे कहते हैं कि व्यवहारनय तो जीव और देह को एक कहता है पर निश्चयनय कहता है कि जीव और देह ये दोनों कभी एक पदार्थ नहीं हो सकते | 27 7. शिष्य पूछता है कि आत्मा में कर्म बद्ध-स्पृष्ट है या अबद्ध-स्पृष्ट है ? इसका कुन्दकुन्द नय विभाग से ही उत्तर देते हुए कहते हैं 28 जीव में कर्म बद्ध ( जीव के प्रदेशों के साथ बंधा हुआ ) है और संयोग होने ' लगा हुआ है, ऐसा व्यवहारनय कहता है तथा जीव में कर्म न बंधा हुआ है और न लगा हुआ है, ऐसा शुद्ध नय बतलाता है । यहाँ भी कुन्दकुन्द
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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