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________________ 106 जनविद्या होते हुए भी हेतुपरक है । यहाँ वह 'समयपाहुड' की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए हेतु रूप में प्रयुक्त किया गया है । न्यायशास्त्र में प्रथमा-विभक्तिवाला पद भी हेतुरूप में भी स्वीकार किया गया है ।19 अतः इस हेतुरूप पद के द्वारा कुन्दकुन्द ने अपने 'समयपाहुड' को प्रामाणिक सिद्ध किया है । समयसार में दर्शन यहाँ हम ऐसे तथ्य प्रस्तुत करेंगे जिनके आधार पर यह ज्ञात होगा कि समयसार में प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अनेक स्थलों पर दर्शन के माध्यम से शुद्ध आत्मा को प्रदर्शित किया है । वे इस प्रकार हैं 1. समयसार गाथा 5 में कुन्दकुन्द कहते हैं-'मैं अनुभव, युक्ति और आगमरूप अपने वैभव से उस एकत्व-विभक्त शुद्ध आत्मा को दिखाऊँगा । यदि दिखाऊँ तो उसे प्रमाण (सत्य) स्वीकार करना और कहीं चूक जाऊँ तो छल नहीं समझना।' यहाँ उन्होंने शुद्धात्मा को दिखाने के लिए अनुभव (प्रत्यक्ष), युक्ति (अनुमान) और आगम इन तीन प्रमाणों को स्पष्ट स्वीकार किया है । उनके कुछ ही उत्तरवर्ती प्राचार्य गृद्धपिच्छ20 और स्वामी समन्तभद्रा जैसे दार्शनिकों ने भी इन्हीं तीन प्रमाणों से अर्थ (वस्तु) का प्ररूपण . माना है और उसे भगवान् महावीर का उपदेश कहा है । कुन्दकुन्द के उक्त कथन में स्पष्टतया दर्शन समाविष्ट है और यह तथ्य है कि दर्शन प्रमाण के बिना आगे नहीं बढ़ता। प्रमाण तो उसके अंग हैं। 2. कुन्दकुन्द गाथा 3 में बतलाते हैं कि प्रत्येक पदार्थ अपने एकपने में सुन्दर, स्वच्छ-अच्छा, भला है और इसलिए लोक में सभी पदार्थ सब जगह अपने एकपने को प्राप्त होकर सुन्दर बने हुए हैं । किन्तु उस एकपने के साथ दूसरे का बन्ध होने पर झगड़े होते हैं और उसकी सुन्दरता (स्वच्छता-एकता) नष्ट हो जाती है । वास्तव में मिलावट असुन्दर होती है, जिसे लोक भी पसन्द नहीं करता और अमिलावट (खालिस-एकपना) सुन्दर है जिसे सभी पसन्द करते हैं । यह सभी के अनुभवसिद्ध है । कुन्दकुन्द कहते हैं कि जब सब पदार्थों का अपना एकत्व ही सुन्दर है तो एकत्व-विभक्त प्रात्मा सुन्दर क्यों नहीं होगा। ____ 3. जब कुन्दकुन्द से किसी शिष्य ने प्रश्न किया- 'वह एकत्व-विभक्त शुद्ध आत्मा क्या है ?' उसका उत्तर देते हुए कहते हैं-'जो न अप्रमत्त है-अप्रमत्त (सातवां) आदि से अयोगी (चौदहवें) पर्यन्त गुणस्थानों वाला है और न प्रमत्त है-मिथ्यादृष्टि आदि प्रमत्त पर्यन्त गुणस्थानों वाला है, मात्र ज्ञायकस्वभाव पदार्थ है वही एकत्व-विभक्त शुद्ध आत्मा है । उसके ज्ञान, दर्शन और चारित्र का भी उपदेश व्यवहारनय से है, निश्चयनय से न ज्ञान है, न चारित्र है और न दर्शन है । वह तो एक शुद्ध ज्ञायक ही है ।' कुन्दकुन्द का यह गुणस्थान-विभाग और नयविभाग से कथन आगम प्रमाण पर आधृत है । ____4. यह शिष्य पुनः प्रश्न करता है कि 'हमें तो एकमात्र परमार्थ (शुद्ध निश्चयनय) का ही उपदेश दीजिए । व्यवहार-अशुद्ध नय की चर्चा यहाँ (एकत्व-विभक्त
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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