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________________ 104 जैनविद्या तमिल थी और वे तमिलभाषी थे किन्तु अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के नेतृत्व में उत्तरभारत से दक्षिण भारत में जो विशाल मुनि-श्रावक संघ गया था और जो शौरसेनी प्राकृत का पूरा अभ्यासी था, उससे कुन्दकुन्द बहुत प्रभावित और उस भाषा के प्रकाण्ड पण्डित बने होंगे, तभी उन्होंने शौरसेनी प्राकृत में विपुल ग्रन्थ रचे । उनका तमिल भाषा में रचा एकमात्र ग्रन्थ 'कुरल' उपलब्ध है, जिसे तमिलभाषी 'पंचमवेद' के रूप में मानते हैं। कुन्दकुन्द के उत्तरवर्ती शतशः प्राचार्यों ने भी शौरसेनी प्राकृत में प्रचुर ग्रन्थों की रचना की है । शौरसेनी प्राकृत साहित्य के निर्माताओं में प्राचार्य कुन्दकुन्द का निस्संदेह मूर्धन्य स्थान है । वे यशस्वी प्राकृत साहित्यकार के अतिरिक्त मूलसंघ के गठन-कर्ता के रूप में भी इतने प्रभावशाली रहे हैं कि शिलालेखों और मूर्तिलेखों के सिवाय शास्त्र-प्रवचन के प्रारम्भ में और मंगल क्रियाओं के अवसर पर 'मंगलं भगवान् वीरो' प्रादिपद्य द्वारा तीर्थकर महावीर और उनके प्रथम गणधर गौतम इन्द्रभूति के पश्चात् उनका भी बड़ी श्रद्धा के साथ स्मरण किया जाता है । इससे प्राचार्य कुन्दकुन्द का एक महान् एवं प्रामाणिक प्राचार्य के रूप में सर्वाधिक महत्त्व प्रकट होता है तथा उनके धवल यश की प्रचुरता ख्यापित होती है। समयसार-समयपाहुड उनकी इस महत्त्वपूर्ण कृति का मूल नाम समयसार है या समयपाहुड ? मूलग्रन्थ का पालोड़न करने पर विदित होता है कि इसका मूल नाम 'समयपाहुड' है । कुन्दकुन्द ने स्वयं ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण एवं ग्रन्थ-प्रतिज्ञा गाथा में समस्त सिद्धों की वन्दना करके 'समयपाहुड' ग्रन्थ के कथन करने का निर्देश किया है और ग्रन्थ का समापन करते समय भी उसका इसी नाम से समुल्लेख किया है । इससे अवगत होता है कि ग्रन्थकार को इसका मूल नाम 'समयपाहुड' (समयप्राभृत) अभिप्रेत है । चूंकि इसमें उन्होंने समयआत्मा के सार-शुद्धरूप का कथन किया है, इससे उसे 'समयसार' भी कहा जा सकता है । कुन्दकुन्द ने गाथा 413 में इस नाम का भी उल्लेख किया है किन्तु यहाँ उन्होंने 'समयपाहुड' के वाच्य शुद्ध आत्मा के अर्थ में समयसार' पद का प्रयोग किया है। उत्तर काल में तो 'समयपाहुड' के प्रथम व्याख्याकार आचार्य अमृतचन्द्र (दशवीं शताब्दी) ने वाच्य और वाचक दोनों में अभेद-विवक्षा से (एक मानकर) 'समयपाहुड' (वाचक) को ही 'समयसार' (वाच्य) कहा है और इसी आधार पर उन्होंने अपनी व्याख्या के आद्य मंगलाचरण में नमः समयसाराय' आदि पद्य द्वारा 'समयसार' का उल्लेख करके उसे नमस्कार किया है। और उसे सर्वपदार्थों से भिन्न चित्स्वभावरूप भाव (पदार्थ) निरूपित किया है तथा वे यह मानकर चले हैं कि 'समयसार' 'समयपाहुड' ही है । अतएव वे यह कहते हैं कि 'समयसार' की व्याख्या के द्वारा ही मेरी अनुभूति की परमशुद्धि हो । ऐसा भी नहीं कि अमृतचन्द्र 'समयपाहुड' नाम से अपरिचित हों, क्योंकि पहली गाथा की व्याख्या में न केवल उसका उन्होंने उल्लेख किया है, अपितु उसे 'अर्हत्प्रवचनावयव' कहकर उसका महत्त्व भी प्रकट किया है। वास्तव में उनकी दृष्टि नाम की अपेक्षा उसके अर्थ की ओर अधिक है क्योंकि नाम तो पौद्गलिक (शब्दात्मक) है और अर्थ चित्स्वभावी शुद्ध प्रात्मा है । इसी कारण
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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