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________________ जैनविद्या श्रमणधर्म योग-धर्म है | मोहन जोदरो और हड़प्पा की खुदाइयों में खड्गासनमुद्रा और नासाग्रस्थित दृष्टि मूर्तियाँ मिली हैं । भारतीय और विदेशी पुरातत्त्वविदों की दृष्टि में वे श्रमण योगियों की मूर्तियां हैं। श्रमण योगी थे । प्राचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि योगियों की अञ्जलि बाँधकर वन्दना करनी चाहिए। उन्होंने योगि-भक्ति में एक-दूसरे स्थान पर लिखा है - "ज्ञानोदक से अभिषिक्त, शीलगुण से विभूषित, तपसुगन्धि से सुगन्धित, राग-द्वेष से रहित और शिव-पथ के साधक योगियों को नमस्कार करना चाहिए 26 | 100 इन्हीं प्राचार्य ने तिरुक्कुरल में लिखा है - "यदि तुम इन्द्रियों के जीतनेवाले योगियों की शक्ति को मापना चाहते हो तो देवों के सम्राट् इन्द्र की ओर देखो जो उनकी भक्ति में सदैव तल्लीन रहता है" । पंचपरमेष्ठी के तीसरे स्तम्भ हैं - प्राचार्य । कुन्दकुन्दाचार्य ने प्राचार्यों को प्रणाम किया है किन्तु उन्हीं को जो उत्तमक्षमा, प्रसन्नभाव, वीतरागता और तेजस्विता से युक्त हैं। तथा जो गगन की भाँति निर्लिप्त और सागर की भाँति गम्भीर हैं 28 । आचार्यों की भक्ति से सम्यग्ज्ञान प्राप्त होता है । कुन्दकुन्द का कथन है- 'मुझ अज्ञानी के द्वारा आपके गुणों की जो भक्ति की गई है वह मुझे बोधि-लाभ देवे, ऐसी प्रार्थना है 29 । एक दूसरे स्थान पर इन्हीं प्राचार्य का कथन है - प्राचार्यों की भक्ति करनेवाला, अष्ट कर्मों को नाश करके संसार समुद्र के पार हो जाता है । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने चैत्यवन्दन पर अधिकाधिक बल दिया है । उन्होंने 'बोध पाहुड' की नौंवी गाथा में स्पष्ट लिखा है कि बिम्ब या मूर्ति को चैत्य कहते हैं । चैत्य शब्द किसी भूतावास या वृक्ष का द्योतक नहीं है अपितु बिम्ब या मूर्ति को कहनेवाला है 31 । तो, चैत्यवन्दन का अर्थ हुआ किसी बिम्ब या मूर्ति की वन्दना । बोध पाहुड की आठवीं गाथा में उन्होंने शुद्ध ज्ञानरूप ग्रात्मा को भी चैत्य कहा है और ऐसी आत्मा को धारण करनेवाले वीतरागी मुनि को चैत्यगृह माना है । बोधपाहुड की नौवीं गाथा में उनका कथन है कि चैत्यभक्ति से सातिशय पुण्यबन्ध होता है । यह सातिशय पुण्यबन्ध महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह क्रमशः मोक्ष का कारण बनता है । अर्थात् ज्ञानरूप श्रात्मा चैत्य है और उसकी भक्ति से मोक्ष प्राप्त होता है, ऐसी प्राचार्य कुन्दकुन्द की मान्यता है । पूरा समयसार, जो भारतीय दर्शन का मानस्वरूप है, 'श्रात्मा ही ज्ञान है' की बात कहता है । प्राचार्य कुन्दकुन्द की यह मान्यता है कि ज्ञान होता है ज्ञानियों की भक्ति से । एतदर्थ, प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अनगारों से अपने पूरे संघ के लिए समाधि-मरण माँगा है 32 | याचना करते हुए उन्होंने लिखा है - ' दुक्खक्खो कम्मक्खप्रो बोहिलाहो,
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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