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________________ जैन विद्या 99 माना है ।12 तीर्थंकर जैन-भक्ति के प्रमुख विषय हैं । मन्दिर-चैत्यों में उन्हीं की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित रहती हैं। संसाररूपी समुद्र जिस निमित्त से तिरा जाता है, वह ही तीर्थ है18 । धनंजय ने द्वादशांग को तीर्थ कहा है क्योंकि उसके सहारे भव-समुद्र को पार किया जा सकता है14 | आचार्य श्रुतसागर ने रत्नत्रय को तीर्थ माना है क्योंकि उसके अभाव में संसार से छुटकारा नहीं हो सकता15 | श्री योगीन्दु ने आत्मा को ही तीर्थ कहा है, उसमें स्नान किये बिना कोई भी जीव संसार के दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता16 । तात्पर्य यह है कि संसार के आवागमन से मुक्त करानेवाला निमित्त तीर्थ है। उस निमित्त के जनक होने के कारण अर्हन्त को तीर्थंकर कहते हैं । जैन साहित्य तीर्थंकर की भक्ति से भरा पड़ा है । प्राचार्य कुन्दकुन्द तीर्थंकर को आत्मदेव मानते थे और उनके परम भक्त थे । जैन-सिद्धान्त में आठ कर्म माने गये हैं। उनमें चार घातिया कर्म होते हैं और चार अघातिया। अर्हत्पद को प्राप्त करने के लिए तीर्थकरत्व नामकर्म का उदय होना अनिवार्य है किन्तु 'सिद्ध' बनने के लिए ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं होती। प्रत्येक जीव, जो अष्टकर्मों को नष्ट कर लेता है, सिद्धपद का अधिकारी हो जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द 'सिद्ध' के परम भक्त थे । एक भक्त को आराध्य की शरण में जाने से जो प्रसन्नता उपलब्ध होती है वही उन्हें सिद्धों की शरण में जाने से मिली थी। उन्होंने कहीं तो सिद्धों की महिमा के गीत गाये हैं, कहीं उनको शीश झुकाकर नमस्कार किया है, कहीं वन्दना की है । उनका दृढ़ विश्वास है कि सिद्धों की भक्ति से परम शुद्ध सम्यग्ज्ञान प्राप्त होता है18 । केवलज्ञान ही नहीं अपितु भक्त को वह सुख भी मिलता है जो सिद्धों के अतिरिक्त अन्य को उपलब्ध नहीं है ।19 पं० आशाधर ने 'सिद्ध' की व्युत्पत्ति करते हुए कहा है-सिद्धि स्वात्मोपलब्धिः संज्ञाता यस्येति सिद्धः०, अर्थात् स्वात्मोपलब्धि स्वरूप सिद्धि जिसको प्राप्त हो गई है वह ही सिद्ध है । प्राचार्य कुन्दकुन्द का 'परिसमाप्त कार्य'21 इसी स्वात्मोपलब्धिरूप कार्य को पूरा करने की बात कहता है । प्राचार्य यतिवृषभ ने भी 'अट्ठविहकम्मविपला' से आठ कर्मों के क्षय होने और 'रिणट्ठिय कज्जा'22 से स्वात्मोपलब्धिरूप कार्य को पूरा करने का ही निर्देश किया है। दर्शन और ज्ञान ही नहीं, चारित्र का भी अपना महत्त्व है। केवल सम्यग्दर्शन और ज्ञान से ही मोक्ष नहीं मिलता, सम्यक्चारित्र का होना भी परमावश्यक है। प्राचार्य कुन्दकुन्द की मान्यता है कि पूर्ण चारित्र पाल कर मोक्ष गये हुए सिद्धों की वन्दना से बिगड़ा हुआ चारित्र सुधरता है और मोक्ष-सुख प्राप्त होता है23 । उन्होंने पाँच प्रकार के चारित्र की भक्ति की बात की है और इस भक्ति से कर्म-मल नष्ट हो जाता है, ऐसा लिखा है241
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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