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________________ 88 जैनविद्या तो किसी जीव या अजीव द्रव्य का ग्रहण करता है और न ही उनका त्याग करता है ।''19 जब आत्मा भोजनादि किसी पदार्थ को न तो ग्रहण कर सकता है न त्याग ही सकता है तो उनके परित्याग का संकल्प भी उतना ही मिथ्या है जितना कि उन्हें ग्रहण करने का संकल्प । इसलिये प्राचार्य उच्च अवस्थाओं को प्राप्त मुनि को सभी प्रकार के संकल्पविकल्पों का परित्याग कर, विचाररहित होकर अपनी ज्ञानानन्दमय आत्मानुभूति में लीन होने के लिए प्रेरित करते हुए कहते हैं-"प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निन्दा, गर्दा और शुद्धि ये आठ प्रकार के विषकुम्भ हैं । अप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण, अपरिहार, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिन्दा, अगर्दा और अशुद्धि ये अमृतकुम्भ हैं ।"20 इसलिये आगे चलकर मुनिराज संकल्प करने के संकल्प का भी परित्याग कर, मन, वचन, काय की समस्त क्रियाओं को रोक कर पूर्णतया वचन-रचना से रहित होकर अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूप की अनुभूतिरूप निर्विकल्प ध्यान में लीन हो जाते हैं तथा इस ध्यानरूपी कुठार के द्वारा भवरूपी वृक्ष को काट देते हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि कुन्दकुन्दाचार्य के अनुसार अपने रागादि विकारों को समाप्त कर शुद्ध स्वरूप के अनुरूप आचरण सम्यक् चारित्र है। व्यक्ति की प्रात्मपर्यायों में जितने अंशों में रागादि विकार विद्यमान होते हैं उतने अंशों में उसका आचरण मिथ्या है तथा जितने अंशों में वह रागादि को समाप्त कर अपने अन्दर ज्ञाता-दृष्टा-भाव विकसित करता है उतने अंशों में उसका आचरण सम्यक् है । चारित्र-शुद्धि की प्रक्रिया आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, प्रायश्चित्त, आत्मस्वरूप की भावना या सामायिक और ध्यानरूप होती है । मालोचना आदि प्रक्रियाओं द्वारा व्यक्ति अपने मोहनीयादि द्रव्यकर्मों तथा राग, द्वेषादि भावकों के स्थूल या उदय में आ रहे रूपों को समाप्त करता हुआ चेतना की निर्मल अवस्थाओं को प्राप्त करता है तथा अन्त में शारीरिक क्रियाओं के साथ ही साथ आलोचनादि क्रियाओं से भी ऊपर उठकर अपने शुद्ध स्वरूप की शब्दरहित अनुभूति में लीनतारूप निर्विकल्पकसमाधि द्वारा अपने समस्त द्रव्यभावकों को सम्पूर्णतया समाप्त करके पूर्णरूपेण शुद्ध स्वरूप के अनुरूप आचरणरूप परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेता है। 1. समयसार, गाथा 155 । दर्शनपाहुड, गाथा 20 । 3. अप्पा अप्पाम्मि रो सम्माइठ्ठी हवेइ फुडु जीवो । जाणइ तं सणाणं चरदिह चारितमगगुन्ति ।। 31, भावपाहुड समयसार, गाथा 5. तत्थ परो झाइज्जइ अतोवाएण चयहि वहिरप्पा । मोक्षपाहुड, गाथा 4, उत्तरार्द्ध 6. अक्खाणि बहिरप्पा अंतरअप्पा हु अप्पसंकल्पो । कर्मकलकविमुक्को परमप्पा भण्णए देव ॥ 5, मोक्षपाहुड
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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