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________________ जैन विद्या है तो निम्नपद पर विद्यमानता दूसरे प्रकार का व्यक्तित्व तथा अनुभूतियाँ उत्पन्न करती है | सम्यग्दृष्टि व्यक्ति सतत आत्मालोचन द्वारा अन्यद्रव्यकृत इन विविध भावों को जानता है तथा अपने परमात्मस्वरूप की भावना द्वारा अपनी अनुभूतियों को अभिमान, लोभादि से रहित निर्मल बनाने हेतु प्रयत्नरत रहता है। वह निरन्तर यह विचार करता है कि मैं एक ज्ञानदर्शनसुखवीर्यमय आत्मा हूँ । मेरा स्वामित्व मात्र मेरे गुणों पर है तथा यही मेरे स्वरूप के नियामक हैं। मुझसे भिन्न पदार्थ, धन, पद आदि का सद्भाव प्रभाव मुझे समृद्ध दरिद्र, महान् या हीन नहीं बना सकता । मेरी समृद्धि और महत्ता मेरे ज्ञानादि गुणों के विकास में तथा दरिद्रता और हीनता ज्ञानादि गुणों के ह्रास में निहित है । इस प्रकार सम्यग्दृष्टि व्यक्ति विविध प्रकार के कार्यों को करते हुए, कर्मों के विविध प्रकार के उदय को भोगते हुए निरन्तर कर्मों की निर्जरा करता है । कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं" सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रियों के द्वारा जो चेतन और अचेतन पदार्थों का भोग करता है वह सब निर्जरा का निमित्त है । वस्तु भोगने में आने पर सुख अथवा दुःख नियम से उत्पन्न होता है, सम्यग्दृष्टि उस उदय को प्राप्त हुए सुख-दुःख का अनुभव करता है, इसके बाद वह ( सुख-दुःख रूप भाव ) निर्जरा को प्राप्त हो जाता है । जिस प्रकार वैद्य पुरुष विष को भोगता हुआ भी मरण को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष पुद्गल कर्म के उदय को भोगता है पर उससे बंधता नहीं है ( नवीन कर्मबन्ध नहीं करता) । 16 86 जैनशास्त्रों में सम्यग्चारित्र का वर्णन करते हुए व्यक्ति की मन, वचन और शरीर से सम्बन्धित क्रियाओं के प्रति अनेक विधि - निषेधों का प्रतिपादन किया गया है। श्रावक और मुनि के अनेक मूलगुण और उत्तरगुण बताये गये हैं, उनके प्रतिचार और अनाचारों का वर्णन किया गया है । व्यक्ति के प्राचरण का यह बाह्य पक्ष अपने आप में पूर्ण सत्य न होकर आचरण के आन्तरिक पक्ष ज्ञानदर्शनात्मक पक्ष से सापेक्षरूप से हो सार्थक है | शरीरादि की क्रियाओं के प्रति विधि-निषेध अपनी क्षुधा, तृषा आदि कमजोरियों पर विजय पाने, अपने प्रमाद को समाप्त तथा अपने निर्विकार तथा अनन्तशक्ति-सम्पन्न चैतन्यस्वरूप को प्राप्त करने का साधनमात्र है तथा उसी व्यक्ति के लिए सार्थक है जो अपनी शुद्ध आत्मा को जानता है, उसकी निरन्तर भावना करता है, उसे प्राप्त करने के लिए प्रयत्नरत है । कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं- " भावों की विशुद्धि के निमित्त से बाह्य परिग्रह का त्याग किया जाता है । जो व्यक्ति प्राभ्यन्तर परिग्रह ( प्रेय पदार्थों की प्राप्ति की इच्छा ) से युक्त है उसका बाह्य परिग्रह का त्याग निष्फल है । यदि भावरहित व्यक्ति अनेक जन्मों में कोड़ाकोड़ी साल तक हाथ लम्बे करके तथा वस्त्रों का परित्याग कर तपस्या करता रहे तब भी उसे मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती ।" 17 जो व्यक्ति गृहस्थ अथवा मुनि की बाह्य क्रियाओं के प्रति शास्त्रोक्त विधि - निषेधों के अक्षरशः पालनमात्र को ही अपना एकमात्र कर्तव्य मानते हैं उन्हें संबोधित करते हुए कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं- "यह मुनियों और गृहस्थ के लिंग मोक्षमार्ग नहीं है । (आत्मानुभूति, आत्मस्वरूप के निश्चय तथा आत्म स्वरूप में आचरणरूप) दर्शन-ज्ञान-चारित्र को जिनदेव मोक्षमार्ग कहते हैं ।" "तू मोक्षमार्ग में अपनी आत्मा को स्थापित कर, उसी का ध्यान कर, उसी को अनुभव कर और उसी में निरन्तर विहार कर, अन्य द्रव्यों में विहार मत कर । " 18
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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