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(ii)
प्रात्मा के स्वरूप का विस्तृत वर्णन किया गया है । आत्मा तीन प्रकार की होती है-बहिरात्मा, अन्तरात्मा व परमात्मा । आत्मा का निकृष्ट रूप बहिरात्मा व श्रेष्ठ-उच्चतम रूप परमात्मा है । इन सभी के लक्षण प्रथम अधिकार में बताये गये हैं। परमात्मा का लक्षण बताते हुए प्रथम अधिकार के 23वें दोहा में कहा गया है जिसका संस्कृत रूपान्तरण निम्न प्रकार है
वेदैः शास्त्ररिन्द्रियैः यो जीव मन्तुं न पाति । निर्मल ध्यानस्थ यो विषयः स परमात्मा अनादिः ॥
-आत्मा ध्यानगम्य ही है, शास्त्रगम्य नहीं है क्योंकि जिनको शास्त्र सुनने से ध्यान । की सिद्धि हो जावे, वे ही आत्मा का अनुभव कर सकते हैं।
दोहा सं. 123 में कहा गया है
देउ ण देउले णवि सिलए णवि लिप्पइ गवि चित्ति । प्रखड णिरंजणु णाणमउ संठिउ सम-चित्ति ॥
-आत्मदेव देवालय (मन्दिर) में नहीं है, पाषाण की प्रतिमा में भी नहीं है, लेप में भी नहीं है, चित्राम की मूर्ति में भी नहीं है, कर्माजन से रहित है, ज्ञानमय है, ऐसा निज परमात्मा समभाव में तिष्ठ रहा है, अन्य जगह नहीं है ।
'परमात्म-प्रकाश' के दूसरे अधिकार में मोक्ष के स्वरूप, मोक्ष का फल, निश्चय व व्यवहार मोक्ष-मार्ग, अभेद रत्नत्रय, शुद्धोपयोग के स्वरूप की चर्चा है एवं अन्त में परम-समाधि का कथन है। इस प्रकार स्पष्ट है कि 'परमात्म-प्रकाश' अध्यात्म का जनदर्शन पर आधारित एक गूढ़ अलौकिक ग्रंथ है। श्री योगीन्दु ने अपने इस महान् ग्रंथ की रचना अपने एक शिष्य भट्ट प्रभाकर के कुछ प्रश्नों का उत्तर देने के लिए की है एवं उस प्रकाश पर प्रकाश डाला है जिस प्रकाश की आवश्यकता किसी प्रात्मा को परमात्मा बनने के लिए है।
___ 'योगसार' भी परमात्म-प्रकाश की तरह पूर्णतः आध्यात्मिक है । इस विशेषांक में कई विद्वानों ने श्री योगीन्दु के कृतित्व व व्यक्तित्व पर कई दृष्टियों से प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है । 'परमात्म-प्रकाश' उपलब्ध अपभ्रंश भाषा-साहित्य का सबसे प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है । इसका सर्वप्रथम प्रकाशन पं० मनोहरलाल द्वारा सम्पादित होकर वि. सं. 1972 अर्थात् करीब 73 वर्ष पूर्व हुआ था। इसके 21 वर्ष बाद इसका द्वितीय संस्करण अधिक शुद्ध रूप से (नई आवृत्ति के प्रथम संस्करण के रूप में) प्रसिद्ध विद्वान् प्रो. ए. एन. उपाध्ये द्वारा सम्पादित होकर प्रकाशित हुआ। द्वितीय व तृतीय प्रादि संस्करण भी श्रीमद् राजचन्द्र पाश्रम, अगास द्वारा प्रकाशित हो चुके हैं। इन संस्करणों के अध्ययन द्वारा किसी भी पाठक-शोधकर्ता को 'परमात्म-प्रकाश' व 'योगसार' का अधिक विस्तृत परिचय प्राप्त हो सकता है ।
डॉ. गोपीचन्द पाटनी
सम्पादक