SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 62 जनविद्या जाय तो अत्युक्ति नहीं होगी । लगता है योगीन्दु के कारण मध्यकाल में दो समानांतर परम्पराएँ चलती रहीं-आध्यात्मिक परम्परा और दार्शनिक परम्परा । दार्शनिक परम्परा में समन्तभद्र, सिद्धसेन, नागार्जुन, हरिभद्र, अकलंक आदि का नाम लिया जा सकता है जिन्होंने अध्यात्म को दर्शन के क्षेत्र में विकसित किया । आध्यात्मिक परम्परा जो कुन्दकुन्द से प्रारम्भ हुई थी और जिसकी बागडोर बाद में योगीन्दु ने सम्हाली थी, नाथों और सिद्धों से गुजरती हुई मुनि मानसिंह, आनंदतिलक, कबीर, बनारसीदास, आनंदघन आदि आत्मसाधकों तक पहुंची । इन परम्पराओं के प्राचार्य किसी न किसी सांस्कृतिक परम्परा से जुड़े हुए थे । फिर भी उनकी रचनाओं में समन्वयवाद और असाम्प्रदायिकता से सनी आत्म-साधना का लक्ष्य रहा है। योगीन्दु की सारी साधना 'अप्पसंबोहण' की साधना है । उन्होंने अपने शिष्य प्रभाकर भट्ट को भी प्रात्मसंबोधन के ही माध्यम से शुद्धात्म-स्वरूप का विवेचन किया है । उसका प्रश्न वस्तुतः एक सर्वसामान्य प्रश्न है कि यह जीव अनंतकाल तक इस संसार में भटकता रहा पर उसे कहीं भी यथार्थ सूख नहीं मिल पाया, अत. चतुर्गतियों के दुःखों से मुक्त करानेवाले परमात्मा का स्वरूप क्या है ? परमात्मप्रकाश की रचना इसी प्रश्न के उत्तर में हुई है और योगसार भी लगभग इसी विषय को दुहराता है। ये दोनों ग्रन्थ मूलत: शुद्ध नय अथवा निश्चय नय पर आधारित हैं पर उसे स्पष्ट करने के लिए वहाँ व्यवहार नय का भी आश्रय लिया गया है । प्रश्न और उसका उत्तर स्वयं ही व्यवहार और निश्चय नय पर खडा है। यही अध्यात्मवाद है और इसी को आधुनिक शब्दों में 'रहस्यवाद' कहा जाता है। योगीन्दु के शब्दों में यह 'परब्रह्मवाद' है। उन्होंने अनेक स्थानों पर परमात्मा को 'परब्रह्म' की संज्ञा दी है । हम जानते हैं, 'परमब्रह्म' वैदिक संस्कृत का शब्द है पर उसके सही स्वरूप को परमात्मा के साथ बैठाकर बात करने के पीछे यही रहस्य है कि अन्तत: उसमें और शुद्ध परमात्मा के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है। यह समन्वय की दृष्टि से उत्तम चिंतन था योगीन्दु का । इसीलिए योगीन्दु के अध्यात्मवाद अथवा रहस्यवाद को 'परब्रह्मवाद' भी कहा जा सकता है। रहस्य एक ऐसी मानसिक प्रतीति या अनुभूति है जिसमें साधक ज्ञेय वस्तु के अतिरिक्त ज्ञेयान्तर वस्तुओं की वासना से असंपृक्त हो जाता है। उसका प्रयोग विविक्त और गुह्यादि अर्थ में भी हुआ है। धवलाकार ने इसे अन्तरायकर्म के अर्थ में प्रयुक्त किया है ।। इसे कदाचित् उत्तरवर्ती जैनाचार्यों ने स्वीकार नहीं किया। इस अर्थ में रहस्य शब्द का प्रयोग हुअा भी कैसे, यह समझ में नहीं आया। हाँ, यह अवश्य है कि प्राध्यात्मिक वस्तुनिष्ठता के रूप में उनका प्रयोग जैनाचार्यों ने अवश्य किया है। हेमचन्द्र ने प्राकृत व्याकरण (2.204) में और टोडरमल ने 'रहस्यपूर्ण चिट्ठी' में उसे अध्यात्म की परिधि में ही रखा है। ब्रह्मदेव ने "पुनःपुनश्चिन्तनलक्षणम्” (2.211, टीका प.प्र.) कहकर कदाचित् इसी अोर संकेत किया है । अतः उसका सम्बन्ध साधना, भावना और अनुभूति से अधिक है । . आधुनिक युग में रहस्यवाद शब्द अधिक प्रचलित है । प्राच्य और पाश्चात्य विद्वानों ने इसकी परिभाषाएं विविध प्रकार से की हैं । मैं उसकी मीमांसा में नहीं जाना चाहती,
SR No.524758
Book TitleJain Vidya 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages132
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy