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________________ प्रास्ताविक जनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी की शोधपत्रिका 'जनविद्या' का यह नवां अंक 'योगीन्दु विशेषांक' के रूप में अपभ्रंश भाषा के पाठकों, अध्ययनकर्ताओं व शोधकर्ताओं को समर्पित करते हुए हमें अत्यन्त हर्ष है। इसके पूर्व अपभ्रंश भाषा से सम्बन्धित भिन्न-भिन्न विषयों व विद्वानों के कार्य को उजागर करनेवाले पाठ विशेषांक प्रकाशित हो चुके हैं1. स्वयंभू विशेषांक, 2. पुष्पदंत विशेषांक, खण्ड-1, 3. पुष्पदंत विशेषांक खण्ड-2, 4. महाकवि धनपाल विशेषांक, 5-6. वीर विशेषांक, 7. मुनि नयनन्दी विशेषांक और 8. कनकामर विशेषांक । जैसाकि सर्वविदित है, अपभ्रंश भाषा मध्यकालीन युग में एक अत्यन्त सक्षम भाषा रही है जिसके माध्यम से उस युग में जीवन से सम्बन्धित अनेक विषयों पर अमूल्य साहित्य का निर्माण हुआ है । जो अपभ्रंश शब्द ईसा से दो सौ-तीन सौ वर्ष पूर्व संस्कृत व प्राकृत से इतर शब्द अर्थात् अपाणिनीय शब्द के लिए प्रयुक्त होता था वही ईसा की छठी शताब्दी तक आते-आते एक सक्षम जनभाषा एवं साहित्यिक भाषा के लिए प्रयुक्त होने लगा। भाषा के विकास-क्रम में ऐसा ही होता है । प्रारम्भिक जनभाषा (देश भाषा) विद्वानों की साहित्यिक भाषा बन जाती है। भाषा कोई भी हो उसमें समय के साथ-साथ कई परिवर्तन हो जाते हैं जिससे उस भाषा के कई भेद-उपभेद बन जाते हैं । अपभ्रंश के भी जो छठी शताब्दी से प्रारम्भ होकर कम से कम पन्द्रहवीं शताब्दी तक एक सक्षम भाषा रही है कई भेद उपभेद बन गये हैं यथा-नागर, पैशाची, ब्राचड, महाराष्ट्री, अर्द्धमागधी, मागधी, शौरसेनी आदि । प्रारम्भ में इनमें बहुत कम अन्तर था किन्तु समय के साथ-साथ रहन-सहन, प्रांतीय, सांस्कृतिक तथा राजनैतिक कारणों से इनमें काफी अन्तर हो गया। जो भाषा सभी प्रकार से नियमबद्ध हो जाती है उसका विकास रुक जाता है और कालान्तर में समय के साथ वह मृतप्रायः हो जाती है । अपभ्रंश के साथ भी ऐसा ही हुआ। वर्तमान में अपभ्रंश का पुन: अध्ययन एवं शोध कार्य प्रारम्भ हुआ है उसके मुख्यतः दो कारण हैं—प्रथम अपभ्रंश भाषा प्रायः सब ही आधुनिक उत्तर भारतीय भाषाओं यथाराजस्थानी, हिन्दी, गुजराती, लहंदा, पंजाबी, सिन्धी, मराठी, बिहारी, बंगाली, उड़िया, असमी आदि भाषाओं की जननी रही है अत: हिन्दी एवं अन्य सभी उत्तर भारतीय भाषाओं के विकास के इतिहास के अध्ययन के लिए अपभ्रंश भाषा का अध्ययन प्रावश्यक है । दूसरा
SR No.524758
Book TitleJain Vidya 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages132
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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