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________________ जनविद्या मुढा देवलि देउ णवि, णवि सिलि लिप्पइ चित्ति । देहा-देवलि देउ जिणु सो बुज्झहि समचित्ति ॥ 44 ॥ अर्थ-हे मूर्ख ! देव किसी देवालय में नहीं हैं, किसी पत्थर, लेप अथवा चित्र में भी नहीं हैं, जिनदेव तो देह-देवालय में हैं, ऐसा समचित्त होकर समझ । जे परभाव चएवि मुणि अप्पा अप्प मुणंति । केवल-णाण-सरूव लइ ते संसार मुचंति ॥ 63 ॥ अर्ध-जो मुनि परभाव को छोड़कर अपनी आत्मा से अपनी आत्मा को जानता है वह केवलज्ञान प्राप्त कर संसार से मुक्त हो जाता है । अप्पा दंसणु णाणु मुणि, अप्पा चरणु वियाणि । अप्पा संजमु सील तउ, अप्पा पच्चक्खाणि ॥ 81 ॥ अर्थ-हे जीव ! आत्मा को ही दर्शन और ज्ञान समझ, आत्मा को हो चारित्र जान और संयम, शील, तप और प्रत्याख्यान भी आत्मा को ही मान । अरहंतु वि सो सिद्ध फुडु, सो प्रायरिउ वियाणि । सो उवझायउ सो जि मुणि, णिच्छ। अप्पा जाणि ॥ 104 ॥ अर्थ-निश्चय से यह आत्मा ही अरहन्त है, सिद्ध है और प्राचार्य है, उपाध्याय और मुनि भी यह आत्मा ही है। जे सिद्धा जे सिज्झिहिहिँ जे सिझहिँ जिण-उत्तु । अप्पादंसणि ते वि फुडु, एहउ जाणि णिभंतु ॥ 107 ॥ अर्थ- भूतकाल में जो सिद्ध हुए हैं, भविष्य में जो सिद्ध होंगे तथा वर्तमान में जो सिद्ध हैं वे निश्चय ही आत्मदर्शन से सिद्ध हुए हैं, यह भ्रान्तिरहित होकर समझ ले । योगप्रदीप में "ज्ञानदर्शनचारित्ररूपरत्नत्रयात्मकः योगी मुक्तिपदप्राप्तेरूपायः परिकीर्तितः” कहकर सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रयात्मक योग को मुक्ति प्राप्ति का उपाय बताया गया है। योगसार का योग भी मुक्ति प्राप्ति का उपाय ही ही है । वह स्व को स्व के द्वारा स्व से जोड़ने की प्रक्रिया का वर्णन करता है । उसमें व्यवहार नय से सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र को पृथक्-पृथक् मुक्ति का मार्ग बताया गया है और निश्चय नय से इन तीनों की एकात्मकता ही मुक्ति है, ऐसा कहा है । यहाँ स्व ही साधन और स्व ही साध्य है । योग ही साधन और उसकी पूर्णता ही साध्य है, परम-समाधि है, मोक्ष है और यह ही प्रत्येक जीव का प्राप्तव्य है ।
SR No.524758
Book TitleJain Vidya 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages132
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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