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________________ 20 जैनविद्या कुछ नहीं होने का। जिसके अशुद्ध भाव है उसके संयम ही नहीं होता। मन की शुद्धि के बिना संयम कहाँ (2.65-65) ? परमार्थ का अनुभवन अर्थात् शुद्धोपयोग के बिना कोई शास्त्रों को पढ़ता है, तपश्चरण करता है या तीर्थाटन करता है तो उसे मोक्ष नहीं मिलता (2.82-85) अपितु परमार्थ का अनुभवन करते हुए मोक्ष की वांछा भी छोड़ देने पर मोक्ष होता है । इस सन्दर्भ में उनके ही विचार प्रस्तुत हैं "हे योगी! तू मोक्ष की भी चिन्ता मत कर क्योंकि मोक्ष चिन्ता करने से नहीं होता, वांछा के त्याग से होता है। तू तो परमार्थ अनुभवन अर्थात् शुद्धात्मसंगोपन में ही अपना उपयोग लगा। मिथ्यात्वरागादि से उपार्जित जिन कर्मों ने तुझे बांधा है वे ही कर्म मुक्त भी करेंगे (2.188)। कितना सार्थक है यह कथन ! वास्तव में निराकुल निश्चय की निश्चितता ही निर्वाण है। 1. 2.174 परमात्मप्रकाश, 1978, रायचन्द्र ग्रन्थमाला अागास । 2. समयसार, गाथा 164 । पंचास्तिकाय संग्रह, गाथा 149 । 3. तत्वार्थसूत्र, 8.1। 4. द्रव्यसंग्रह, गाथा 33 । 5. परमात्मप्रकाश, 1.78, टीकाकार ब्रह्मदेव सूरि के अनुसार । 6. तत्वार्थसूत्र, 1.11
SR No.524758
Book TitleJain Vidya 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages132
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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