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________________ जनविद्या उत्पन्न कर देता है (2.57) । यदि पुण्य मोह-सम्पृक्त या मिथ्यात्वमिश्रित हो तो पापपरिणाम का ही जनक होता है क्योंकि पुण्य से वैभव मिलता है, वैभव से मद उत्पन्न होता है, मद से मतिमोह हो जाता है और बुद्धि के मोहित या भ्रष्ट हो जाने से पाप का संचय होता है । इसलिए ऐसा पुण्य हमारे लिए नहीं होवे (2.60) । निजदर्शन अर्थात् निर्मल सम्यक्त्व के अभिमुख होकर मरण भी भला है, इसलिए हे जीव ! तू उसे तो प्राप्त कर किन्तु निजदर्शन से विमुख होकर पुण्य मत कर क्योंकि जो लोग निजादर्शनाभिमुख हैं वे अनन्तसुख पाते हैं और जो निजदर्शन के बिना केवल पुण्य करते हैं वे अनन्त दुःख सहते हैं (2.58-59) । देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति से पुण्य होता है कर्मक्षयरूप मोक्ष नहीं होता तथा देवशास्त्रगुरु की निन्दा से नियमतः पाप होता है जिसके कारण ही जीव संसार में भ्रमण करता है । पापपरिणाम से उसे नरक और तिर्यंच गति मिलती है तथा पुण्यपरिणाम से देवगति एवं पुण्यपापरूप मिश्रपरिणाम से मनुष्य गति की प्राप्ति होती है, निर्वाण तो पुण्य-पाप दोनों के ही क्षय से होता है (2.61-63)। पुण्य-पापरूपी कर्मजाल को दग्ध करने का उपाय है अपने परमात्म-स्वभाव में अनुराग करना । अर्धनिमिष के लिए भी यदि कोई परमात्मस्वभाव में अनुराग करता है तो उसके पापरूप कर्मजाल दग्ध हो जाते हैं जैसे अग्निकणिका काष्ठगिरि को दग्ध कर देती है (1.114)। जोइन्दु के अनुसार मोक्ष को छोड़कर त्रिभुवन में कोई भी सुख का कारण नहीं है (2.9) । मोक्ष के स्वरूप निर्धारण में वे कर्मों से छूटने को महत्त्व नहीं देते अपितु जिस कारण से कर्म छूटते हैं उसे महत्त्व देते हैं । उनके ही शब्दों में जीवहँ सो पर मोक्खु मुणि जो परमप्पय-लाहु । । कम्मकलंक विमुक्काहं गारिणय बोलहिं साहू ॥ 2.10 अर्थात्-कर्मकलंक से विमुक्त जीवों को जो परमात्मलाभ होता है वह मोक्ष है, ज्ञानी साधु ऐसा कहते हैं। सर्व पुरुषार्थों में मोक्ष ही प्रमुख (2.3) व सुखकारक (2.4-8) है । कर्मविमुक्त जीव में प्रकट हुए अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतवीर्य और अनंतसुख का नाश एक समय के लिए भी नहीं होना अर्थात् उनका शाश्वतरूप से जीव में ही बने रहना मोक्ष का फल है . (2.11)। मोक्षप्राप्ति के लिए पुरुषार्थ-प्रवर्धन की प्रेरणा देने हेतु जोइन्दु जहाँ दान-पूजादि रूप श्रावकधर्म को प्रारम्भिक भूमिका में परम्परा से मोक्ष का कारण कह देते हैं वहीं वे उत्कृष्ट भूमिका में शुक्ल ध्यान से साध्य व मुनिधर्म के अनुरूप सार्थक तपश्चरण को ही मोक्ष का कारण मानते हैं। वे लिखते हैं-"तूने मुनिवरों को दान नहीं दिया, जिननाथ की पूजा नहीं की, पंचपरमेष्ठियों की वंदना नहीं की तो तुझे शिवलाभ क्यों होगा (2.168) ? तथा तूने सारे परिग्रह भी नहीं छोड़े, उपशमभाव भी नहीं किया, जिसमें योगियों का अनुराग है उस
SR No.524758
Book TitleJain Vidya 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages132
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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