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________________ जनविद्या 15 हे स्वामी, संसार में रहते हुए मेरे अनन्त काल बीत गये, पर मुझे कुछ भी सुख नहीं हुआ इसके विपरीत महान् दुःख ही मिला है । चार गतियों-मनुष्यगति, तिर्यंचगति, नरकगति और देवगति के दुःखताप के विनाशक जो परमात्मा हैं, उनके स्वरूप को समझाने की कृपा करें। (9-10) __ भट्ट प्रभाकर की प्रार्थना सुनकर जोइन्दु ने देहात्मपरिमाणवादी दृष्टि से परमात्मा का जो विशद निरूपण किया उसका सामासिक स्वरूप इस प्रकार है जो त्रिभुवनवन्दित और सिद्धिप्राप्त है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवता भी जिसका ध्यान करते हैं, जो हर्ष-विषाद आदि के संकल्प-विकल्प में पड़े हुए चिन्त (लक्ष्य) को निर्विकल्प भाव या एकमात्र आनन्दस्वभाव (अलक्ष्य) से पकड़कर स्थिर या क्षोभहीन रहता है, उसे परमात्मा समझो। (1.16) जो वेद, शास्त्र और इन्द्रियों से नहीं जाना जा सकता, जो केवल निर्मल ध्यान या समाधि का विषय है, वही अनादि परमात्मा है। (1.23) जो अनादि अनंत देवता देह के मन्दिर में रहता है, फिर भी देह से भिन्न रहनेवाला उसका आत्मशरीर केवलज्ञान से प्रकाशित रहता है, निस्सन्देह वही परमात्मा है। (1.32) देह में रहकर भी जो निश्चय ही देह को नहीं छता और न ही उसका स्पर्श करता है, वीतराग निर्विकल्प समाधि में अवस्थित और देह के ममत्वपरिणाम से रहित उस शुद्धात्मा को परमात्मा जानो। (1.34) व्यवहारतः शुभाशुभ कर्मों से निबद्ध होकर भी जो शुद्ध निश्चय से कर्मरहित है, केवलज्ञान आदि अनन्तगुण को छोड़कर जो कर्मरूप में परिणत नहीं होता, उसे परमात्मा समझो। (1.46) 'प्रात्मा की अभेद स्थिति के सम्बन्ध में जोइन्दु का तर्क स्वयं प्रमाण है। उनकी दृष्टि में आत्मज्ञ होना ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य है, इसलिए अनेकान्तरूप आत्मा की सही पहचान आवश्यक है । वे कहते हैं काल पाकर जैसे-जैसे मोह गलता है वैसे वैसे जीव आत्मदर्शन पाकर अवश्य ही ही प्रात्मज्ञ हो जाता है । आत्मा न गोरा है, न काला है और न लाल ही है। प्रात्मा न तो सूक्ष्म है, न स्थूल ही । ज्ञानी उसे ज्ञान की दृष्टि से ही देख पाता है । आत्मा न ब्राह्मण होता है, न वैश्य, न क्षत्रिय होता है, न शूद्र । वह पुरुष, स्त्री या नपुंसक भी नहीं होता । अर्थात् वह परमहंस, संन्यासी, मुण्डी, तिलक-छापाधारी आदि लिंगों (चिह्नों) से मुक्त होता है। जो ध्यानी होता है वही आत्मा को असली रूप में पहचानता है । प्रात्मा न गुरु होता है और न शिष्य ही । वह स्वामी भी नहीं होता है, भृत्य भी नहीं । वह शूर-कायर, ऊँच-नीच कुछ भी नहीं होता । आत्मा मनुष्य भी नहीं होता, देव भी नहीं, तिर्यक और नारक भी नहीं, बहिरात्मा
SR No.524758
Book TitleJain Vidya 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages132
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size12 MB
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