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________________ जमविद्या 89 माँ बनने का सौभाग्य ही इसके सातिशय पुण्य को प्रकट कर देता है। जिनमती अत्यधिक पुत्रानुरागिणी, उदार व निडर पात्र के रूप में चित्रित हुई है, उसमें धार्मिक विचारोपेत एक आदर्श भारतीय नारी के सभी गुण सुस्पष्ट प्रतिफलित होते हैं । पुत्र जम्बूकुमार से दीक्षा लेने का विचार सुनकर वह मूच्छित हो जाती है । पुनः सचेत होने पर पुत्र को दीक्षा न लेने के लिए समझाती है और लोकाचार का उपदेश भी देती है321 पद्मश्री प्रादि वधुएं कुमार को दीक्षा न लेने के लिए राजी कर पाती हैं या नहीं-यह जानने की उत्कंठा उसे अत्यधिक है । वह जलती हुई भूमि के समान दीर्घ और उष्ण श्वांस लेती हुई बार-बार वासगृह का द्वार देखती है और जानना चाहती है कि क्या कुमार अभी भी वैसे ही दृढ़प्रतिज्ञ हैं33 ? उसे नींद कहाँ ! वह तो इधर-उधर घूमती रहती है और चोरी के अभिप्राय से पाये विद्युच्चर को भी वह कहती है-हे पुत्र ! यदि तू मेरे पुत्र को दीक्षा लेने से रोक ले तो तुझे जो रुचे वह ले जाना । पुत्र के दीक्षित होने पर स्वयं भी सुप्रभा प्रायिका के पास दीक्षा ग्रहण कर लेती है । पद्मावती-यह राजगृही के जिनभक्त श्रेष्ठी समुद्रदत्त की प्रियतमा पत्नी है । पद्मश्री की माँ36 होने से इसे काव्य में स्थान मिला है । कनकमाला—यह कनकधी की माता और कुबेरदत्त श्रेष्ठी की कनक (स्वर्ण) माला के समान सुन्दर कांता के रूप में उल्लिखित हुई है37 । विनयमाला-यह विनयश्री की माता और वैश्रवण नामक श्रेष्ठी की पत्नी है38 । विनयमती-कुवलय अर्थात् नीलकमल के समान नेत्रोंवाली धनदत्त की भार्या और रूपश्री की माता होने से इसका उल्लेख हुअा है । पद्मश्री, कनकश्री, विनयश्री और रूपश्री-ये चारों ही क्रमश: समुद्रदत्त, कुबेरदत्त, वैश्रवण और धनदत्त श्रेष्ठियों की सर्वगुणसम्पन्न व अतिशय सौन्दर्यवती कन्यायें हैं। जम्बूकुमार के साथ इनका परिणय होना पूर्व पैज (प्रतिज्ञा) के अनुसार सुनिश्चित था अतः इन्हें नाना विद्यायें सिखायी गईं। इन्होंने तीनों भाषाएं (संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश-टिप्पणीकार) सीखीं । लक्षणशास्त्र (व्याकरण) और लक्ष्य अर्थात् साहित्यशास्त्र को पढ़ा । दर्शनशास्त्र व न्यायशास्त्र के साथ तर्कशास्त्र को सुना। छंद-अलंकार व निघण्टु का ज्ञान किया और धर्म, अर्थ व काम के प्रशस्त साधनों को भी जान लिया। वीणादि वाद्य-वादन में निपुण होकर गायन और नृत्यकला में कुशलता प्राप्त की। और भी बहुत कुछ इन्होंने सीखा जिन्हें कहने में कवि अपने आप को असमर्थ समझ रहा है40 । चारों ही कन्याओं के सौन्दर्य-वर्णन में कवि ने अत्यधिक रुचि दिखाई है। चारों ही कन्यायें अपने कुल की मर्यादा के अनुरूप उदात्त विचारों से अोतप्रोत हैं, हीन पाचरण की कल्पना तक उनमें नहीं है किन्तु अपने रूप और ज्ञान पर अत्यधिक विश्वास उन्हें अवश्य है, इसे गर्व की संज्ञा भी दी जा सकती है। वे अपने पितजनों द्वारा रखे प्रस्ताव'जम्बूस्वामी के अलावा किसी अन्य से विवाह कर लो'-को ठुकरा देती हैं तथा कहती हैं कि एक दिन के लिए भी यदि कुमार विवाह करने को राजी हो जायें तो फिर हम उन्हें वश में कर लेंगी।
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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