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________________ जनविद्या चरितनायक जम्बूसामि के उल्लिखित प्रथम भव के जीव भवदेव की माता भी यही है। इसका प्रथमपुत्र भवदत्त भी है जो काव्य का एक महत्त्वपूर्ण पात्र है। नागदेवी-यह वर्द्धमान ग्राम के स्वकुलभूषण द्विज दुर्मर्षण की प्रिय भार्या' और भवदेव की परित्यक्ता पत्नी नागवसू की माता है । नागवसू-यह नागदेवी की पुत्री और भवदेव की परिणीता पत्नी है जो विवाह के समय नीलकमलदल जैसी कोमल, श्यामलांगी नवयौवन की लीला से ललित, पतली देहवाली मुग्धा8 नायिका की भांति अत्यधिक सौन्दर्य-सम्पन्न रही होगी तभी तो प्रव्रजित भवदेव अहर्निश उसका ध्यान करता रहता है। भवदेव के दीक्षा ले लेने के कारण नागवसू परित्यक्ता हो गई किन्तु उसने पतिधर्म का निष्ठापूर्वक पालन करने हेतु पुनः विवाह नहीं किया और भवदेव के ही घर पर रहकर धर्मध्यान में समय बिताया तथा घर के द्रव्य को धर्मकार्य में लगाने की भावना से ग्राम के बाहर एक सुन्दर चैत्यगृह निर्मित करा दिया। संयोग से इसी चैत्यगृह में नागवसू के प्रति आसक्त व भटके हुए दीक्षित भवदेव आते हैं । नागवसू उन्हें प्रणाम करती है। पहचान न पाने के कारण वे नागवसू से सही सारा वृत्तान्त पूछते हैं।1। नागवसू ने बातों-बातों में ही जान लिया कि यह मेरा पति भवदेव है जो व्रतों से डिग गया है । इससे वह परमविषाद को प्राप्त हुई और सोचने लगी-'देखो ! इस राग की परिणति का निवारण कौन कर सकता है, यह मनुष्य आड़े-टेढ़े व सड़े-गले चमेखंड से किस प्रकार विकारग्रस्त होता है12 ?' धर्मानुरागिणी विवेकशीला नागवसू अपनी पार्योचित उदात्तता के अनुसार तत्काल अपना परिचय नहीं देती अपितु यह संकल्प करती है कि मैं इसकी पापमति को नष्ट करूंगी। । वह बड़ी गंभीरता के साथ सविनय तत्त्वज्ञानप्रेरक उपदेश14 देती है तथा नागवसू का सौन्दर्य बताने के बहाने परोक्षतः अपनी घृणित रोगग्रस्त, कृश गाववाली, भोगवासना के लिए सर्वथा अयोग्य शारीरिक स्थिति का चित्रण15 कर देती है। जब उसे यह विश्वास हो जाता है कि भवदेव का मोह टूट गया है और उसमें सम्यक् निःशल्यभाव भी प्रकट हो चुका है तो वह अपना परिचय देती है-'हे नाथ ! मैं ही तुम्हारी परित्यक्ता गृहिणी नागवसू हूं16 ।' भवदेव लज्जित होते हैं और प्रायश्चित्तादिपूर्वक17 सच्चे मुनि बन सार्थक तपश्चरण करते हैं18 । ___ नागवमू ने 'वैराग्य या अभ्युत्थान मार्ग पर आरूढ़ होने का पुरुषार्थ करने में पुरुष के लिए स्त्री बाधक है'-इस जनसाधारणीय धारणा को निराधार सिद्ध कर दिया है। नागवसू के उद्बोधन व विवेक ने बाहर से योगी पर मन से भोगी भवदेव को अन्र्ताबाह्य सच्चा योगी बनाने में जो अहम भूमिका निभाई है उससे स्त्रीचरित्र में निहित उदात्तता गौरवान्वयी हो उठी है । वस्तुतः नागवसू यहाँ अत्यन्त धार्मिक, सहनशील, उदात्त, प्रत्युत्पन्नमति व आदर्श भारतीय नारी के रूप में प्रकट हुई है और प्रकृत काव्य का अलंकरण बन गई है।
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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