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________________ जैन विद्या 77 जो आज भी हिन्दी बोलियों में, विशेषतः बुन्देलखंडी में कुछ हेर-फेर के साथ प्रचलित हैं । इनके प्रयोग से कथानक में स्वाभाविकता दिखने लगी है अच्छ [4.13] अच्छा, स्वच्छ ड ढ [3.8] दाढ अज्ज [2.10] अाज ढिल्ल [9.17] ढीला अम्म [9.26] माता, अम्मा ढोर [8.11] पशु अलस [10.13] पालस दाइज्ज [812] दाइजो, दहेज अवस [1.11] अवश्य दाढ़ियाल [5 8] दढ़ियल उत्छव [4.8] उत्सव देवल [10.8 ] देवालय कइदिण[ 10.21] कई दिन धुरि [11.11] धुरी कसार [5.7] कंसेरा नाइं [2.15] समान कप्पड़ [11.7] कपड़ा पास [2.12] पास, समीप कप्पूर [17.12] कपूर भाइजाय [10.8 ] भौजाई कब्बाडिउ [10.12] कबाडी महिल [5.7] महिला कूर [8.13 ] विशिष्ट भोजन रइ [15.13] राई खइर [5.8 ] खैर रंड [4.18] रांड, विधवा खट्टउ [8.12] खटाई रोक्क [9.8] रोकड़ गोट्ठ [8.15] गोठ लइय [8.14] लात घरकज्ज [3.9] घरकाज लंपड [7.5] लंपट छुरिए [9.12 ] छुरी लंबड [8.15] लम्बा जिट्ठ, जेट्ठ [4.3] जेड बइर [1.18] वैर टंक [6.10] टांग बहु [8.3] वधु ठक्कुर [7.6] ठाकुर वावार [8.8] वापार, व्यापार डर [3.2] डर सुण्णार [10.16] सुनार डसिय [4.22] डसना हिय [3.12] हिय, हृदय यहां यह उल्लेखनीय है कि अपभ्रंश महाकाव्य और चरितकाव्य में साधारणतः कोई अन्तर नहीं माना जाता । वे सभी प्रायः पौराणिक कथा पर आधारित होते हैं। उन्हें कथा, चरित या पुराण कहा जाता है । विद्वानों ने इन चरितकाव्यों की सामान्य विशेषतायें इस प्रकार निर्धारित की हैं--
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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