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________________ 76 जैनविद्या से उसका काव्यग्रंथ भलीभांति निखरता हुआ दिखाई देता है। यहां कवि के द्वारा प्रयुक्त कतिपय रूपकों की शब्दसूची का उल्लेख प्रासंगिक होगा जिससे एक तरफ कवि की काव्यप्रियता इंगित होती है और दूसरी तरफ कथा प्रस्तुति में सघनता और गंभीरता आ जाती है-- श्रेष्ठ-हंस, स्तन, 1.6 लोभ-गजेन्द्र, 3.9 स्वरहीन-कुकवि कृत काव्य अलक-स्वरलहर, 4.13 जलवाहिनी-कामनियां ललाट-अर्धचन्द्र सरोवर-कुकलित्र,1.7 कटि-मूठ किरण-सर्प, 1.9 भ्रूयुगल-चाप यश-मरकत, ऐरावत, 1.11 अधर-करमुद्रिका नीति-तरंगिणी, सागर कपोलयुगल-चन्द्रखंड सज्जन-कमल, दिवाकर कंठ-शंख धर्म-महारथ बाहुयुगल-मालतीमाला मुख-पूर्णचन्द्र, 1.12 नाभि-गुलेल नेत्र-बालहरिणी, 1.12 कमलदल, 3.3 ' बलित्रय-धनुष स्वर-कोकिला, चरणयुगल-कमलपत्र प्रधोष्ठ-बंधूकपुष्प मन-अश्व, 4.13, मत्कुण, 8.8 स्तन-कलश, स्नानघट उज्ज्वलदंत-कुंदपुष्प नितम्ब-चन्द्र मन-चत्वर दीप, 8.7 शिरोभाग-भ्रमरकुल आयुष्य-सर्पजिह्वा मुण्डितसिर-नारियल, 2.18 लक्ष्मीविलास-गंडमाला रोग भव-काला सर्प, 3.7 विषयसुख-खुजली इन्द्रियां-फण सुकुमारता-शिरीष कुसुम चतुर्गति-मुख स्त्रीपुरुषयुगल-ग्राम वन मिथ्यात्व-विसदृश नेत्र केश-भृगावलि रति-दाढ़ कुसुममाला-कंदर्पवाणपंक्ति, 10.20 विषयभोग-जिह्वा कर्मफल-गरल मंत्राक्षर-गरुड़ लोकाख्यानों में ग्राम बोलियों का प्रयोग बड़ा रुचिकर लगता है। उनमें प्रचलित शब्दों के प्रयोग से कथा में एक नई जान सी आ जाती है । प्राधुनिक प्रांचलिक उपन्यासों में यह तथ्य विशेष उभरकर सामने आया है। यहां हम कुछ ऐसे शब्दों का उल्लेख कर रहे हैं
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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