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________________ 70 जनविद्या वह सर्वप्रथम संक्लिष्ट भावों का त्याग करे, परमात्मा का चिंतन करे, रागद्वेष भाव से मुक्त हो, इन्द्रियनिग्रही हो, शत्रु-मित्र आदि से समभावी हो - संकिट्ठभाव सव्व वि चइया, सविसेसदिक्ख पुरणरवि लइया । अब्भसइ निरंजणु परमपर, वे मेल्लइ रायदोस अवरु । रुभई मणवयणकायपसरु, नासइ इंदियविसया अवरु । अरि-मित्तु सरिसु समक णयतिणु, सुहदुहसमु समजीवियमरणु । निंदापसंससमु वयविमलु, भुजेइ अजिब्भु व करि कवलु। 2 20 अनगार बनने के लिए माता-पिता तथा परिजनों को अनुमति प्राप्त करना आवश्यक होता है । इस शर्त को पूरा करने के बाद ही जंबूसामि को मुनि दीक्षा दी गई (8.6-7)। मूलाचार, दशवकालिक आदि प्रागम ग्रन्थों में भी ऐसा ही निर्देश है । परिजनों की अनुमति पाने के बाद व्रताभ्यासी के लिए एक कठोर संकल्प करना पड़ता है मुनिव्रत पालन करने का। जंबूकुमार ने संकल्प किया कि वह संसार त्याग कर मुक्ति प्राप्त करेगा जिससे मनरूपी मत्कुण पुनः डंक न मार सके (8.8)। मुनि को अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करना भी आवश्यक माना गया है। जंबूसामिचरिउ में उनका वर्णन स्पष्ट रूप से नहीं आता। छ: प्राभ्यन्तर और छः बाह्य तपों का भी उल्लेख मिलता है (10.20-23)। इसके बाद बारह अनुप्रेक्षाओं का चिंतन किया जाता है (11.2-14)। यहीं बाईस परीषहों का भी उल्लेख मिलता है। इन सभी में कोई नवीनता नहीं है, अतः उनको उद्धृत नहीं कर रहा हूं । जहां तक मोक्ष के स्वरूप का प्रश्न है, उसकी अवधारणा करते हुए यह लिखा है कि इन्द्रिय व्यापार समाप्त हो जाता है, अर्थ विकार रहता नहीं, काल द्रव्य विलीन हो जाता है और जीव अपनी स्वाभाविक स्थिति (निरंजनता, कर्म रहितता) में पहुंच जाता है (8.8 ) । जंबूसामिचरिउ वस्तुतः कथाग्रन्थ है, चरितकाव्य है। इसमें बीसों कथाएँ जुड़ी हुई हैं । इसलिए दार्शनिक विषय को प्रस्तुत करने का अवसर कवि को मिला ही नहीं। कथाप्रवाह में कोई अवरोध न आये, इस उद्देश्य से उसने ऐसे अवसरों को टाला भी। संसार और संसार-मुक्ति से संबद्ध सारे विषय को कथाओं के माध्यम से उपस्थित कर ही दिया गया । इस कथ्य में दार्शनिक गंभीरता पाती तो निश्चित ही कथा में बोझिलता बढ़ जाती । अतः दार्शनिक विषय की कमी जंबूसामिचरिउ की कमी नहीं मानी जानी चाहिए। हाँ, यह अवश्य है कि उसमें स्वयंभू और पुष्पदन्त जैसी शैली और पाण्डित्य अवश्य दिखाई नहीं देता । जैनेतर दर्शनों के सम्बन्ध में भी यहां विचार कर लेना चाहिए । महाकवि ने विद्युच्चर के माध्यम से चार्वाक और सांख्य दर्शनों के ही कतिपय सिद्धान्तों का उल्लेख किया है अत्यन्त संक्षेप में (10.2-5) । विद्युच्चर की दृष्टि में निवृत्ति मार्ग मात्र उदर-पोषण के लिए है जिसे प्रमादी लोग स्वीकार करते हैं । भिक्ख निमित्तु लिगु उद्धिट्ठउ (: 0.2) । __ आत्मा का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है । देह भी न स्वयं जीव है और न जीव का कार्य ही है । वह पंचभूतों से उत्पन्न होता है और जिस प्रकार मुड़, धानकी और जल के
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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