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________________ जैन विद्या सांसारिक विषयों में डोलता रहता है, जीवित प्रायुष्य सर्प की जिह्वा स्फुटण के समान चंचल है और बल गिरी नदी के पूर के समान निरन्तर ह्रास को प्राप्त होता रहता है । लक्ष्मी का विशाल गण्डमाला रोग जैसा है और विषयसुख नखों से खाज खुजलाने के समान है (8.7) । वह विरोधात्मक संगतियों से भरा हुआ है। एक के पास भोजन करने की शक्ति है तो भोजन नहीं, दूसरे के पास भोजन है तो खाने की शक्ति नहीं । एक की दान प्रवृत्ति है तो धन नहीं, दूसरे के धन है तो दान का व्यसन नहीं ( 10.2 ) । यह सब पुण्य-पाप का फल है। सुख-दुःख का संयोग पुण्य-पाप से ही होता है ( 3.13 ) । 69 सांसारिक दुःखों की जड़ में कषाय रहती है । क्रोध, मान, माया और लोभ से जीव अपने मूल स्वभाव को भूल जाता है । रति लोभ से वह संकट के महासागर में गिर जाता है । क्रोध में हिताहित का विवेक खो जाता है, बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, मन विचलित हो जाता है (5.13) । जम्बूसामिचरिउ अन्तर्कथाओं से भरा हुआ है । इसलिए उसमें विषय - सामग्री कम और कथा भाग अधिक है । संसार की स्थिति को स्पष्ट करनेवाली अनेक लोककथाएँ उल्लेखनीय हैं - विषयासक्त हाथी की दुर्गति, बन्दर को अतृप्तवासना का फल, कामवासनाओं के कारण वानर की मृत्यु, कबाड़ी का घनापहरण, कमलगंध-लोलुपी भ्रमर की मृत्यु, नकुल द्वारा सर्प का मरण, शृगाल की मृत्यु, मधु की खोज में ऊंट की मृत्यु, लकड़हारा, चंगसुनार पुत्र, भोगवासनाग्रस्त ब्राह्मणपुत्र, मधुबिन्दु आदि । निवृत्ति मार्ग सांसारिक दुःखों से विनिर्मुक्त होने के लिए वीर कवि ने पारम्परिक मार्ग का उल्लेख किया है। यहां श्रावकाचार प्रौर मुनि प्रचार का वर्णन यद्यपि अत्यल्प है फिर भी वह मूल सिद्धान्त का संकेत कर ही देता है। श्रावकाचार का तो कोई उल्लेख ही नहीं है । हां, चक्रेश्वर के माध्यम से यह अवश्य कहा गया है कि घर में रहते हुए भी नियम और व्रतों को धारण किया जा सकता है । घरि संठिउ नियमवयई धरहिं ( 3.9 ) । सागारधर्मामृत में भी कहा गया है ( 1.2 ) | ठाणांग ( 1.15 ) में पन्द्रह प्रकार के सिद्धों का उल्लेख है जिनमें एक गृहलिंगी सिद्ध भी है । वीर कवि का उपर्युक्त उद्धरण इतना कहने के लिए पर्याप्त है कि 11- 12वीं शती में गृहस्थावस्था में चारित्रिक शुद्धि पर विशेष बल दिया गया । यह आवश्यक इसलिए था कि कर्मकाण्ड का आधिक्य हो जाने के कारण ज्ञान और चारित्र को एक सीमा तक धक्का लगा । दूसरी बात यह है— जैन परम्परा निवृत्ति के क्षेत्र में क्रमिक विकास को अधिक उचित मानती है । मुनिव्रत के अभ्यास के लिए श्रावकावस्था निश्चित ही सर्वोत्तम साधन है । जम्बूकुमार ने भी पिता के आग्रह पर श्रावकव्रत ग्रहण किये ( 3.9 ) । 1 मुनिचर्या जंबूसा मिचरिउ में मुनिचर्या का वर्णन अपेक्षाकृत अधिक मिलता है । भवदेव के प्रसंग में कवि ने अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। उनकी दृष्टि में मुनि की आवश्यक शर्त यह है कि
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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