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________________ जैनविद्या मुंडियड सिरु, नालियसरि लालाविलु मुहु घग्घरियगिरु । नयणई जलबुब्बु सरिसयई, नियथाणु मुवि तालु वि गयई । चिच्चयनिड्डाल कवोलतयई, रणरणह नवरि वायाहयई । निम् निलो हिउ देवधरु, चम्मेण नछु हडडहं नियरु । नीसल्लु अवरु हियवउ जरणउ, पडिछंदु निहालहि महु तणउ । 2.18.10-15 57 उक्त छंद में सुन्दर चिबुक, ललाट, कपोल और त्वचा का कान्तिहीन होकर वायुग्रस्त हो जाना, मुख में लार और बैठे हुए नेत्रों में पानी भरा रहना तथा सिर का नारियलवत् दिखना आदि उद्दीपन विभाव 'निर्वेद' जागृत करने में पूर्ण सक्षम हैं । श्रेष्ठि-कुमारियों के विवाह की चिन्ता में माता-पिता का वात्सल्य भाव सूक्ष्मतया ही 'जम्बूसामिचरिउ' में अभिव्यक्त हुआ है । एकलौते पुत्र जम्बूस्वामी की मां जिनमती की आकुलता का एक अनूठा वात्सल्य चित्र 'वीर कवि' ने उकेरा है । वत्सलता के सूक्ष्मातिसूक्ष्म भावों के चितेरे कवि भी ऐसे चित्र की कल्पना नहीं कर सके। प्रत्येक भारतीय मां सौभाग्यती वधू के आगमन पर अपने वंशवृद्धि की भावी उमंग में निमग्न रहती है इसी कारण पुत्र और पुत्रवधू की बड़ी उम्र में भी उनके प्रति उसकी वत्सलता बनी रहती है पर जिनमती को तो इकलौते बेटे जम्बूस्वामी के विरक्त होने के भय से उत्पन्न वंश-वृद्धि न हो सकने की पीड़ा ने झकझोर रखा है । तभी वह पुत्र की प्रथम वैवाहिक रात्रि को व्यवस्थित कामासक्त पुत्रवधुनों के हाव-भाव और विलासपूर्ण प्रियवचनों को देखने-सुनने में रुचि ले रही है, इस व्यग्रता में पुत्र के कामासक्त हो सकने की उम्मीद उसे संतोष भी देती है । पुत्र के प्रति प्रदर्शित पुत्रवधुनों की काम- चेष्टानों को व्यग्रतापूर्वक निरन्तर देखते रहने का 'अनहोना' व्यवहार इतना मर्मस्पर्शी है कि विद्युच्चर जैसा निष्ठुर चोर भी करुणा-विगलित हो उसका सहायक बन जाता है । नेमिनाथ के विरक्त होने पर विह्वल शिवादेवी की मानसिक स्थिति की तुलना का संकेत देकर जिनमती की आंतरिक पीड़ा का आभास मात्र वीर कवि ने रसमर्मज्ञों को कराया है - सिवएवि जेम दुहवियल पाण, सिरिनेमिकुमारें मुच्चमाण । घर पंगणु मेल्लइ वार- वारु, पुणु जोवइ सुयवासहरबारु । 9.14.7-8 ' के विरक्त होने की चिन्ता, कामासक्त पुत्रवधुनों की विलासमयी हरकतें देखने की पुत्र यता, फिर अपनी चेष्टा के प्रति 'ग्लानि' किन्तु पुनः वंशवृद्धि न हो सकने का 'भय' तथा
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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