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________________ जनविद्या मनोविज्ञान से विशेष सम्बन्ध प्राता है । इसलिए कवि में भी दोनों प्रकार की प्रतिभा की आवश्यकता है। भावयित्री प्रतिभा के अभाव में वह "शुष्को वृक्षो तिष्ठति अग्रे" और "नीरसतरुवरः विलसति पुरतः" का अन्तर ही भूल जायेगा, सहृदय और सुमनस् उसके संवाद से छूट जाएगा । काव्य तो कारयित्री प्रतिभा और भावयित्री प्रतिभा के बीच संवाद है । यह बात इलियट ने भी कही है कि कवि अपने कृतित्व का केवल कर्ता ही नहीं है, भोक्ता भी है, मूल्यांकनकर्ता भी । इस प्रकार एक अोर सृजनशीलता कर्ता है और दूसरी ओर अालोचक, दोनों का सामंजस्य सोने में सुगंध - कव्वु जे कइ विरयइ एक्कुगुणु, अण्णेक्क पउंजिव्वइ निउणु । एक्कु जे पाहाणु हेमु जणइ, अण्णेक्कु परिक्खा तासु कुणइ । सो विरलु को वि जो उहयमइ, एवं विहो वि पुणु हवइ जइ। 1.2.8-10 तुम्हेहि वीरकव्वं सुयणेहि परिक्खिऊण घेत्तत्वं । कसतावछेयसुद्धं कणयं नेहेण मा किणह । चिरकचतुलातुलियं बुद्धीकसवट्टए कसेऊण । रसवित्तं पयछिन्नं गिण्णहह कव्वं सुवणं मे। 9.1.1-2 "वीर" कवि के परवर्ती तुलसी ने भी इसका व्याख्यान किया है - मनि मानिक मुकुता छवि जैसी, अहिगिरि गज सोहन तैसी । नृप किरीट तरुनी तनु पाई, लहहिं सकल सोभा अधिकाई। तैसेहि सुकवि कवित बुध कहहीं, उपजहिं अनत अनत छवि लहहीं। रामचरित मानस 1.11 सुमति भूमि थल हृदय अगाधू, वेद पुरान उदधि घन साधू । बरसहिं राम सुजस बरबारी, मधुर मनोहर मंगलकारी। रा. च. मा. 1.36 हृदसिंधु मति सीप समाना, स्वाति सारदा कहहिं सुजाना। जो वरषइ वरवारि बिचार, होहिं कवित मुकुतामन चार। रा. च. मा. 1.11 गिरा प्ररथ जलबीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न । बंदउं सीताराम पद, जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न । रा. च. मा. 1.18 लोकोत्तर वर्णना प्रतिभा का ही रूप है । इसकी कोई अवधि नहीं होती है । यह निर्बाध उत्साह के परिस्फुरण से सुशोभित रहती है, स्वच्छन्द व्यापार के कारण अत्यधिक सौंदर्य-सम्पन्न होती है और विवक्षितार्थ की उद्भावना के कारण मनोहर ।' यह प्रबंध और प्रकरण वक्रता के अनेक भेदोपभेदों में द्रष्टव्य है । हर जगह प्राप्त होनेवाले सम्यक् प्रयोग से सुशोभित होनेवाले प्रबन्ध के अवयवों के प्रधान कार्य से जुड़ने का अनुग्राह्य-अनुग्राहक भाव, सहज-सुन्दर प्रतिभा से प्रकाशित होता हुआ वक्रता के चमत्कार को उत्पन्न करनेवाले किसी
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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