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________________ जनविद्या अंतरंग की भावनाएं किसी न किसी प्रकार व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण में कारगर भूमिका का निर्वाह करती हैं । महाकवि वीर के व्यक्तित्व में अनेक उदात्त गुणों का सामंजस्य था। जहां वे भक्ति रस में निमग्न थे वहां दूसरी ओर कवि को समाज के विभिन्न वर्गों एवं जीवनयापन के विविध साधनों का साक्षात् अनुभव था । कवि की मान्यता रही है कि एक सच्चे पुरुष की चर्या में दरिद्रों को दान देना, दूसरों के दुःख में दुःखी होना अवश्य सम्मिलित होना चाहिए। कवि का हृदय परोपकार और सहृदयता से भरा-उभरा हुमा था। कवि के अनुसार हाथ में धनुष, साधु-चरित्र महापुरुषों के चरणों में शिरसः प्रणाम, बोल में अनमोल किन्तु सत्यतापूर्ण वाणी-बोल, हृदय में स्वच्छ-प्रवृत्ति, कानों में सुने हुए श्रुत का ग्रहण तथा दो भुज-लताओं में विक्रम यह वीर का सहज परिकर हुमा करता है। कवि ने स्वरचित काव्य-कृति की षष्ठ संधि में स्पष्ट किया है देंत दरिदं परवसणदुम्मणं सरसकव्वसव्वस्सं । कइवीरसरिसपुरिसं धरणि धरती कयत्थासि ॥ हत्थे चारो चरणपणमणं साहुसीलाण सीसे । सच्चावारणी वयणकमलए वच्छे सच्छापवित्ती॥ कण्णाणेयं सुयसुयगहणं बिक्कमो दोलयारणं । वीरस्सेसो सहजपरियरो संपया कज्जमण्णं ॥ 6.1.1-6 प्रसिद्ध मनीषी डॉ. विमलप्रकाश जैन ने अपने शोध-प्रबन्ध में स्वयं प्रमाणसहित कहा है कि वीर कवि पूर्ण रूप से एक अनुकम्पावान् सल्लक्षण जैन गृहस्थ होने के साथ ही एक सच्चे वीर पुरुष भी थे । इतना निश्चित है कि कवि धार्मिक, श्रद्धालु, भक्तिपूर्ण, विरल, व्रती तथा कर्म संस्कारों पर श्रद्धान से भी महापुरुष थे । उनकी प्रकृति उदार तथा मिलनसार थी। कवि की मान्यता रही है कि सांसारिक जीवन-साफल्य के लिए अपने अंतरंग में वीरता नामक गुण को जाग्रत करना भी प्रावश्यक है । यही कारण रहा है कि कवि ने जहां अपने काव्य में सुख-शांति का विशद वर्णन किया है वहां उसने युद्धों का भी ऐसा सजीव चित्रण किया है जिससे यह सहज ही कहा जा सकता है कि कवि वीर युद्ध भूमि में भी अवश्य अवतीर्ण हुए होंगे। किसी भी कार्य की संप्रेरणा उसको सम्पन्न कराने में मुख्य आधार हुआ करती है । कवि के व्यक्तित्व में व्याप्त अन्तर-बाह्य गुणों से अभिभूत होकर मालवा के धक्कड़ वंशीय तिलक मधुसूदन के सुपुत्र तक्खड़ श्रेष्ठि रहते थे। कहते हैं कि आप वीर कवि के पिता कवि श्री देवदत्त के अभिन्न किन्तु घनिष्ठ मित्र थे। उन्होंने वीर कवि को "जंबूसामि" का चरित्र लिखने की प्रेरणा दी। तक्खड श्रेष्ठि के भाई भरत ने ग्रन्थ को न अधिक विस्तृत और न ही अधिक संक्षिप्त अर्थात् सामान्य कथावस्तु को शब्दायित करने का आग्रह किया। इसका परिणाम कवि कृत जंबूसामिचरिउ है । इसे हम शास्त्रीय शब्दावलि में निमित्त कारण ही कहेंगे किन्तु उपादान बल तो कवि के अन्तरव्यक्तित्व के अनुसार सक्रिय हुआ है। इसी के बलबूते पर कवि ने प्रस्तुत काव्य में आत्माभिव्यक्ति की है। काव्य में अभिव्यक्त इतिवृत्तात्मकता
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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