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जैनविद्या
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जस्स य पसण्णवयणा लहुणो सुमइ सहोयरा तिष्णि ।
सोहल्ल, लक्खणंका जसइ नामे त्ति विक्खाया ॥7॥ जिसके तीन-तीन सहोदर हों उनकी पारिवारिक स्थिति विशेष हुआ करती है । इसी पारिवारिक विशेषता ने कवि के व्यक्तित्व को प्रभावित किया है ।
___ कवि ने बड़ी मनोयोगपूर्वक काव्य, व्याकरण, तर्क, कोष और छन्दशास्त्र का अध्ययन किया । तत्पश्चात् पाप ने अनुयोग-अनुशीलन में अपने पुरुषार्थ का उपयोग लगाया। आप द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग आदि विषयों के विज्ञ बन गये । इससे यह भलीप्रकार जाना जा सकता है कि कवि का व्यक्तित्व एक सुधी जैनविद्या से दीक्षित रहा है। इतना ही नहीं कवि ने तत्कालीन जैनेतर विद्या और ग्रंथीय ज्ञान का अर्जन किया। आप ने बाल्मीकि रामायण, महाभारत, शिवपुराण, विष्णुपुराण, भरत-नाट्य-शास्त्र, सेतुबंध-काव्य आदि का विधिपूर्वक स्वाध्याय किया। इस प्रकार कहा जा सकता है कि कवि के व्यक्तित्व में एक शिक्षित तथा शास्त्रज्ञ के गुणों का सामंजस्य रहा है । वे अपने समय के उच्च शिक्षाप्राप्त सशावक थे । ज्ञान से व्यक्तित्व की जीवनचर्या प्रभावित हुआ करती है। वीर कवि के व्यक्तित्व में शिक्षा के गुणों की अतिरिक्त प्रभावना रही है ।
वयस्क होने पर कवि अपनी वैवाहिक चर्या में दीक्षित हुए और एक दो नहीं चारचार शादियां रचाईं। इनकी पत्नियों के नाम थे-जिनमति, पद्मावती, लीलावती और जयावती। इनकी प्रथम पत्नी से विनम्र स्वभावी तथा सुधी शुभप्रिय नेमीचन्द्र नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था। इस घटना की प्रामाणिकता के लिए अन्तःसाक्ष्य के रूप में कवि-प्रशस्ति का उल्लेख करना अन्यथा नहीं है । यथा
जाया जस्स मरिणछा जिणवइ पोमावइ पुरणो बीया । लीलावइ ति तइया पच्छिमभज्जा जयादेवी॥8॥ पढमकलत्तंगरहो
संताणंकयत्तविडविपारोहो । विषयगुणमरिणनिहाणो तणनो तह नेमिचन्दो त्ति ॥9॥
भारतीय संस्कृति में धर्म, अर्थ, और मोक्ष नामक चार पुरुषार्थ कहे गये हैं। इनका समीकरण किसी व्यक्ति में पुरुष के संस्कार उत्पन्न करता है। कवि के जीवन में त्रय पुरुषार्थ धर्म, अर्थ और काम मुखरित थे । आपका बहुत सारा समय राजकार्य में व्यतीत होता था। कहते हैं कवि का अंतरंग भक्ति रस से भी आप्लावित था। अपनी भक्त्यात्मक तीव्र भावना के बलबूते पर ही आपने पत्थर के एक विशाल जिन मन्दिर का निर्माण करवा कर वहां वर्द्धमान जिन प्रतिमा का प्रतिष्ठापन कराया। यद्यपि इस प्रतिमा पर कोई सन्-संवत् उत्कीर्ण नहीं है तथापि प्रशस्ति लेखन से पूर्व इसकी रचना पूर्ण हो चुकी थी, यह तय है ।
यथा
सोउ जयउ कई वीरो वीरजिणंदस्स कारियं जेण । पाहारणमयं भवणं पियरुदेसेरण मेंहवणे ॥ 10॥